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________________ Sunta E . T A . - - --- मृत्यु की आशंका नहीं रह पाती । यह जीव मृत से अमृत की पोर बढ़ जाता है। मौत का भय ही दुख है । उसके दूर होने पर सुख स्वतः प्राप्त हो जाता है। ऐसा सुख जो क्षीण नहीं होता । इसे ही शाश्वत मानन्द कहते हैं। किंतु उसे वही प्राप्त कर पाता है, जो वीतरागता की पोर बढ़ रहा है।" ऐसी शर्त तुलसी ने 'ज्ञान-भक्ति विवेचन' में भी लगायी है । उनकी दृष्टि में हर कोई भगवान् का नाम नहीं ले सकता । पहले उसमें नाम लेने की पात्रता चाहिए । इसका अर्थ यह भी है कि पहले मन का भगवान् की ओर उन्मुख होना आवश्यक है। ऐसा हुए बिना नाम लेने की बात नहीं उठती । उसके लिए एक जैन परिभाषिक शब्द है 'भव्य, उसका तात्पर्य है-भवसागर से तरने की ताकत । जिसमें वह नही उस पर भगवान की कृपा नहीं होती। भव्यत्त्व उपार्जित करना अनिवार्य है । यदि भगवान् के नाम को कोई भव्य जीव लेता है तो उसके भवसागर तरने में कोई कमी नहीं रहती। इस भव्यत्व को वैष्णव और जैन दोनों ही कवियों ने स्वीकार किया। भारतीय भक्ति परम्परा की एक प्रवृत्ति रही है कि अपने आराध्य की महत्ता दिखाने के लिए अन्य देवों को छोटा दिखाया जाये । तुलसी के राम और सूर के कृष्ण की ब्रह्म, शिव, सनक, स्यन्दन आदि मभी देव आराधना करते हैं। तुलसी ने यहाँ तक लिखा है कि जो स्वयं भीख मांगते हैं, वे भक्तों की मनोकामनाओं को कैसे पूरा करेगे । सूरदास ने अन्य देवों से भिक्षा मांगने को रसना का १. तेरो नाम कल्पवृक्ष इच्छा को न राखे उर, तेरो नाम कामधेनु कामना हरत है । तेरो नाम चिन्तामनि चिन्ता को न राखे पास, तेरो नाम पारस सो दारिद हरत है ॥ तेरो नाम अमरत पिये तै जरा रोग जाय, तेरो नाम सुख मूल दुख को हरत है । तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतरागी, भव्य तोहि पाय भवसागर तरत है । सुपंथ-कुपंथ पचासिका, ब्रह्मविलास, भैया भगवतीदास, पृ० १८० । २. भाव सहित खोजइ जो प्रानी । पाव भगति मनि सब सुख खानी ।। देखिए, रामचरितमानस, ज्ञान-भक्ति विवेचन । -- STORE 555555 98 5卐धधधा
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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