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________________ S H AIRAustauranthan S MORERNET - - करते हुए उन्होंने कहा, "ए निपट गंवार नर । तुझे घमण्ड नहीं करना चाहिए । मनुष्य की यह काया और माया झूठी है, अर्थात् क्षणिक है। यह सुहाग और यौवन कितने समय का है, और कितने दिन इस संसार में जीवित रहना है । हे नर! तू शीघ्र ही चेत जा और विलम्ब छोड़े दे। क्षण-क्षण पर तेरे बंध बढ़ते जायेंगे, और तेरा पल-पल ऐसा भारी हो जायेगा, जैसे भीगने पर काली कमरी।"'भूधरदास ने एक दूसरे पद में परिवर्तन शीलताका सुन्दर दृश्य मंकित किया है। उन्होंने कहा, "इस संसार में एक अजब तमाशा हो रहा है, जिसका अस्तित्व-काल स्वप्न की भांति है, अर्थात् यह तमाशा स्वप्न की तरह शीघ्र ही समाप्त भी हो जायेगा । एक के घर में मन की भाशा के पूर्ण हो जाने से मंगलगीत होते हैं, और दूसरे घर में किसी के वियोग के कारण नैन निराशा से भरभर कर रोते हैं । जो तेज तुरंगों पर चढ़ कर चलते थे, और खासा तथा मलमल पहनते थे, वे ही दूसरे क्षण नंगे होकर फिरते हैं, और उनको दिलासा देने वाला भी कोई दिखाई नहीं देता । प्रात: ही जो राजतख्त पर बैठा हुमा प्रसन्न-बदन था, ठीक दोपहर के समय उसे ही उदास होकर वन में जाकर निवास करना पड़ा। तन और धन अत्यधिक अस्थिर हैं,जैसे पानी का बताशा । भूधरदासजी कहते हैं कि इनका जो गर्व करता है, उसके जन्म को धिक्कार है ।" यह मनुष्य मूर्ख है, देखते हुए भी अंधा बनता है । इसने भरे यौवन में पुत्र का वियोग देखा, वैसे ही अपनी नारी को काल के मार्ग में जाते हुए निरखा, और इसने उन पुण्यवानों को, जो सदैव यान पर चढ़े ही दिखाई देते थे, रंक होकर बिना पनहो के मार्ग में पैदल चलते हुए देखा, फिर भी इसका धन और जीवन से राग नहीं घटा। भूधरदास का कथन है कि ऐसी सूसे की अंधेरी के राजरोग का कोई इलाज नहीं है। "देखौ भरि जोवन में पुत्र वियोग प्रायो, तैसे ही निहारी निज नारी काल-मग में। जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पै, रंक भये फिरें तेऊ पनही न पग में । ऐते 4, प्रभाग धन जीतब सों धरै राग, होय न विराग जाने रहूँगो अलग मैं । १. वही, ११ वां पद, पृ०७ । २. वही, ६ वा पद, पृ. ६ । 55X55 55 55 55 55 55 55 55 55 51.900
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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