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________________ पथ का अनुसरण करें, जिस पर वे स्वयं चले थे।" भैया की दृष्टि से भ्रष्टादश दोष ही प्रशांति के कारण हैं और वे भगवान् जिन के ध्यान से जीते जा सकते हैं। तभी यह जीव उस शांति का अनुभव करेगा, जो भगवान् जिनेन्द्र में साक्षात् ही हो उठी थी। भैया का स्पष्ट प्रभिमत है कि राग-द्वेष में प्रेम करने के ही कारण यह जीव अपने परमात्म-स्वरूप के दर्शनों का आनन्द नहीं ले पाता अर्थात् वह चिदानन्द के सुख से दूर ही रहता है। राग-द्व ेष का मुख्य कारण है मोह, इसलिए मोह के निवारण से राग-द्वेष' स्वयं नष्ट हो जायेंगे, मोर राग-द्वेषों के टलने से मोह तो यत्किचित् भी न रह पायेगा । कर्म की उपाधि को समाप्त करने का भी यह ही एक उपाय है। जड़ के उखाड़ डालने से भला वृक्ष कैसे ठहर सकता है। भौर फिर तो उसके डाल-पात, फल-फूल भी कुम्हला जायेंगे। तभी चिदानन्द का प्रकाश होगा और यह जीव सिद्धावस्था में अनन्त सुख विलस सकेगा । मोह के निवारे राग द्वेषहू निवारे जाहिं, राग-द्वेष टारें मोह नेकहूँ न पाइए । कर्म की उपाधि के निवारिबे को पेंच यहै, जड़ के उखारे वृक्ष कैसे ठहराइए । फल-फूल सबै कुम्हलाय जायं, कर्मन के वृक्षन को ऐसे के नसाइए । तबै होय चिदानन्द प्रगट प्रकाश रूप, डार - पास विलसे अनन्त सुख सिद्ध में कहाई ॥ २ १. जे तो जल लोक मध्य सागर प्रसंख्य कोटि ते तो जल पियो पैन प्यास याकी गयी है । ज ते नाज दीप मध्य भरे हैं प्रवार ढेर ते तो नाज खायो तोऊ भूख याकी नई है । तातें ध्यान ताको कर जाते यह जाय हर भ्रष्टादश दोष प्रादि ये ही जीत लई है । वहे पंथ तू ही साज भ्रष्टादश जांहि माजि होम बैठि महाराज तोहि सीख दई है ॥ भैय्या भगवतीदास, ब्रह्मविलास, "जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९२६ ई० शत भ्रष्टोत्तरी), ' १६वां कवित्त, पृ० ३२ । २. मिथ्यात्वविध्वंसन चतुर्दशी, ८ वां कवित्त, पृ० १२१ ॥ GGGG555555 9
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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