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________________ Dai रूप से स्वीकार किया। उनकी रचनायें इसकी प्रतीक हैं । प्रागे के कवि उनसे प्रभावित हैं। हिंदी के इन जैन कवियों का मंत्र, तंत्र और शांति पाठों की रचना में मन न लगा । इनसे संबंधित हिंदी काव्य संस्कृत प्राकृत ग्रंथों के अनुवाद - भर हैं। देवी पद्मावती, अम्बिका श्रादि मंत्राधिष्ठात्री देवियों की स्तुतियाँ भी पूर्व काव्यों की छाया ही हैं। इनका मन लगा, संसार की प्राकुलता और राग-द्व ेषों के चित्रांकन में । उन्होंने पुनः पुनः मन को वीतरागता की ओर आकर्षित किया । इस दिशा में उनका पद - काव्य अनुपम है। मानव की मूलवृत्तियों के समन्वय ने उसे भाव भीना बना दिया है। वे साहित्यिक कृतियाँ हैं । उनमें उपदेश की रूक्षता तो किञ्चिन्मात्र भी नहीं है । कोई भी बात, चाहे उपदेशपरक ही क्यों न हो, भावों के साँचे में ढल कर साहित्य बन जाती है। जैन हिंदी के प्रबंध श्रीर खण्ड काव्यों का मूल स्वर शांत रस ही है । अन्य रस भी हैं, किंतु उनका समाधान शांतरस में ही हुआ है। ऐसा करने में कहीं भी खींचतान नहीं है, सब कुछ प्रासंगिक और स्वाभाविक है । 1 जैन हिंदी के भक्ति - काव्यों में यदि एक श्रोर सांसारिक राग-द्व ेषों से विरक्ति है, तो दूसरी और भगवान् से चरम शांति की याचना । उनको शांति तो चाहिए किंतु प्रस्थायी नहीं । वे उस शांति के उपासक हैं जो कभी पृथक् न हो । जब तक मन की दुविधा न मिटेगी, वह कभी भी शांति का अनुभव नहीं कर सकता । और यह दुविधा निजनाथ निरंजन के सुमिरन करने से ही दूर हो सकती है । कवि बनारसीदास प्रपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं, "न जाने कब हमारे नेत्र चातक अक्षयपद रूपी घन की बूँदें चख सकेंगे, तभी उनको निराकुल शांति मिलेगी । और न जाने वह घड़ी कब प्रायेगी जब हृदय में समता भाव जगेगा । हृदय के अन्दर जब तक सुगुरु के वचनों के प्रति दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी, परमार्थ सुख नहीं मिल सकता । उसके लिए एक ऐसी लालसा का उत्पन्न होना भी अनिवार्य है, जिसमें घर छोड़ कर बन में जाने का भाव उदित हुना हो ।' १. कब जिननाथ निरञ्जन सुमिरों, तजि सेवा जन जन की दुविधा कब है या मन की ॥१॥ कब रुचि सों पीयें हग चातक बूंद प्रखयपद धन की । कब शुभ ध्यान घरों समता गहि करू' न ममता तन की, दुविधा० ||२|| टिप्पणी अगले पेज पर देखिये 555555555G
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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