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________________ NEW अनुराग साधारण राग की कोटि में नहीं पाता। जैनों ने शान्तमाव की चार अवस्थाएँ स्वीकार की हैं-प्रथम अवस्था बह है जब मन की प्रवृति, दुःखरूपास्मक संसार से हट कर मात्म-शोधन की मोर मुड़ती है। यह व्यापक और महत्वपूर्ण दया है। दूसरी अवस्था में उस प्रमाद का परिष्कार किया जाता है, जिसके कारण संसार के दुःख सुख सताते हैं, तीसरी अवस्था वह है जबकि विषय-वासनामों का पूर्ण प्रभाव होने पर निर्मल प्रात्मा की अनुभूति होती है। चौथी अवस्था केवल ज्ञान के उत्पन्न होने पर पूर्ण प्रात्मानुभूति को कहते हैं । ये चारों मवस्थाएं आचार्य विश्वनाथ के द्वारा कही गई युक्त, वियुक्त और युक्तवियुक्त दशात्रों के समान मानी जा सकती हैं। इनमें स्थित 'शम' भाव ही रसता को प्राप्त होता है । जैनाचार्यों ने 'मुक्ति दशा' में 'रसता' को स्वीकार नहीं किया है, यद्यपि वहाँ विराजित पूर्ण शांति को माना है। अर्थात् सर्वज्ञ या अर्हन्त जब तक इस संसार में हैं, तभी तक उनकी 'शान्ति' शान्तरस कहलाती है, सिद्ध या मुक्त होने पर नहीं । 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में रस की परिभाषा लिखी है, "रस्यन्तेऽन्तरात्मनाऽनुभूयन्ते इति रसा:" । अर्थात् अन्तरात्मा की अनुभूति को रस कहते हैं। सिद्धावस्था में अन्तरात्मा अनुभूति से ऊपर उठकर आनन्द का पुञ्ज ही हो जाती है, अत: अनुभूति की आवश्यकता ही नहीं रहती। जैनाचार्य वाग्भट्ट ने अपने 'वाग्भट्टालंकार' में रस का निरूपण करते हुए लिखा है, "विभावैरतुभावश्च, सात्त्विकर्व्यभिचारिभिः। प्रारोप्यमाणं उत्कर्ष स्थायीभावः स्मृतो रस": । अर्थात् विमाव, अनुभाव, सात्विक और व्यभिचारियों के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त हुप्रा स्थायी भाव ही रस कहलाता है । सिद्धावस्था में विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी प्रादि भावों के प्रभाव में रस नहीं बन पाता। जैन आचार्यों ने भी अन्य साहित्य-शास्त्रियों की भांति ही 'शम' को शान्त रस का स्थायीभाव माना है। भगवज्जिनसेन ने 'अलंकार चिन्तामणि' में 'शम' को विशद करते हुए लिखा है, "विरागत्वादिना निर्विकार मनस्त्वं शमः" १. युक्तवियुक्तदशायामवस्थितो य: शभः स एव यतः । रसतामेति तस्मिन्संचार्यादेः स्थितिश्च न विरुद्धा ।। प्राचार्य विश्वनाथ , सहित्यदर्पण, ३।२५०। २. प्रमिधानराजेन्द्रकोश, 'रस', शब्द । ३. प्राचार्य वाग्भट्ट, वाग्भट्टालंकार । 525 55 55 55 5 5 55 55 55 55 REPARATION:
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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