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________________ MAXWW महापावनी भावना भव्यमानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ।। अशोका मुदेका विवेका विधानी, जगज्जन्तुमित्रा, विचित्रावसानी। समस्तावलोका निरस्तानिदानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी।"' बनारसीदास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनकी टीकाओं का तलस्पर्शी अध्ययन किया था। अतः उनमें अध्यात्म रस की प्रधानता हो गई थी। 'नाटकसमयसार' उनकी प्रात्मानुभूति का ही दीपस्तभ है। आत्मा भले ही ज्ञान रूप हो, किन्तु उनकी अनुभूति भाव का विषय है, और उसका भावोन्मेष साहित्य का प्राण है । इसी कारण 'समयसार' दर्शन का ग्रन्थ था और 'नाटक समयसार' साहित्य का उत्तम निदर्शन माना गया है । बनारसी का पाठक यह स्वीकार करेगाही कि उनमें भाव-तन्तु प्रधान थे और इसी कारण वे एक सफल व्यापारी नही बन सके । उन्होने ज्ञान को भी भाव की 'टार्च' से देखा । उनका ऐसा देखना उमास्वाति के 'सम्यक्-दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग,' के अनुकूल ही था । दर्शन का प्रथम सन्निवेश भाव की प्राथमिकता को बताता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि भाव ने ज्ञान को देखा निरन्तर । ज्ञान के बिना भाव चैतन्यहीन होकर बालुका के कण-जैसा निस्पन्द रह जाता । ज्ञान के सतत प्रकाश ने भाव को जागृत रखा । दोनों एक-दूसरे के होकर जिये । इसी कारण बनारसी का काव्य ज्ञान-मूला भाव और भाव-मूला ज्ञान का प्रतीक है । अतः उनकी भक्ति कोरी भाव-मूला नही. अपित ज्ञान ममन्विता भी थी। उसे लोग भले ही ज्ञान-मूला भक्ति कहें । भाव-मार्गी उसे भक्ति मूलक ज्ञान भी कह सकते हैं । तात्पर्य है कि उनकी भक्ति में आत्म-ज्ञान का पुट मिला रहा । इसी कारण वह पुष्ट हुई, यह वात बनारसीदास के काव्य से स्पष्ट ही है । यदि भक्ति शांति की पर्यायवाची है तो प्रात्मज्ञान उसका सहचर है । दोनों का अविनाभावी संबंध है। इस सम्बन्ध से बनारसी की भक्ति में जैसा प्राकर्षण उत्पन्न हुआ, मध्यकालीन अन्य किसी हिन्दी कवि में नहीं । और इसी कारण उन्हें हिन्दी के भक्ति-साहित्य का मान स्तभ कहना चाहिए। १. शारदाष्टक, ६ठा और हवा पद्य, बनारसीविलास, पृ० १६६-६७। ENTPOTamPROM MARATH CAPNAMARI MARPALTSAPTAPERameraregamy
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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