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________________ बनारसी का भक्त असमंजस में पड़ा हुआ है कि “प्रभु के भारी गुरणों की भक्ति का बोझ हलके-से दिल पर कैसे धारण किया जाये, किन्तु प्रभु की महिमा अपरम्पार है, जिसके कारण यह जीव लघु होकर ही संसार को पार कर सकता है ।" इस भाँति भक्त की लघुता और प्रभु की महिमा के अनेकानेक उदाहरण बनारसी - काव्य में छिटके पड़े हैं। बनारसी के अराध्य की सबसे बड़ी विशेषता है, उसकी उदारता । उदारता भी ऐसी-वैसी नही - परले सिरे की । एक बार स्मररण करने मात्र से पापीसे पापी के सब दुःख दूर हो जाते है। दुखों में मुख्य है भय । पापात्मा भयभीत हो काँपता रहता है। उसकी तड़फन, जो श्रभिव्यक्त नहीं हो पाती, उसे कोंचती ही रहती है । जिसके स्मरण से भय निर्मूल हो जायं, वह भगवान् बहुत बड़ा है और उतनी ही बड़ी है उसकी उदारता । ऐसे प्रभु के सहारे टिक पाता है भक्त का अटूट विश्वास और श्राशा की श्वांसों में वह जीवित रहता है। बनारसीदास प्रारम्भ से ही भगवान् पार्श्वनाथ के भक्त थे । वे जैन परम्परा में २३ वें तीर्थंकर माने जाते हैं । उनका जन्म ईसा से ८०० वर्ष पूर्व बनारस में हुआ था । उनका शरीर सजल जलद की भाँति था। उनके सिर पर सात फॅरण वाले सर्प का मुकुट सुशोभित रहता था । उन्होंने कमठ के मान का दलन किया था। वे मदन के विजेता और धर्म के हितैषी थे । बनारसीदास के समूचे भय, उनका नहीं, उनकी भक्ति का स्मरण करने से ही दूर हो गये "मदन- कदन जित परम धरम हित, सुमिरति भगति भगति सब डरसी । सजल - जलद - तन मुकुट सपत फन, दलन जिन नमत बनरसी || २ कमठ - M जो प्रभु भक्त को अभय न दे सका, वह भले ही शील-सना हो और भले ही सौन्दर्य का अधिष्ठान हो, एकनिष्ठ श्रद्धा का अधिकारी नहीं हो पाता । भक्त किसी भी कोटि का हो, भगवान् की शक्ति सम्पन्नता पर ही रीझता है । जितेन्द्र में शील-सौन्दर्य ही नही, शक्ति भी होती है। उन्हें 'अनन्त बोरज' का धनी भी १. तुम अनन्त गरुवा गुरण लिये । क्योंकर भक्ति धरू निज हिये || व लघुरूप तिरहि संसार । यह प्रभु महिमा कथ अपार ।। वही, १३ वाँ पद्य, बनारसी विलास, पृ० १२५ । २. पार्श्वनाथ स्तुति, नाटक समयसार, दिल्ली, पृ० १ । 55555555 54
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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