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________________ NAVARAN प ERAMINimmindi --- Amirmatavakhand ही याचना की, "अब होउ भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोरि भूधरदास विनवे, यही बर मोहि दीजिये' ।" तुलसी की विनय पत्रिका और सूरदास के सूरसागर का मूल स्वर भी यह ही है । जैन काव्य में अहैतुक प्रात्म-समर्पण का अवसर अधिक था । यहाँ जीवात्मा को समर्पण करने कहीं अन्यत्र नही जाना पड़ा। उसमें जब यह भाव प्रादुर्भूत हुआ, तभी वह परमात्म रूप में परिणत हो गई । जैसे सूर्य के प्रतापवान होने पर धन-समूह को विदीर्ण होना ही पड़ता है और सूर्य निराबाध ज्योतिवन्त हो उठता है, जैसे द्वितीया के चन्द्र के आगमन की इच्छा होते ही अमा की निशा को मार्ग देना ही पड़ता है और उसकी शीतल किरणे चतुर्दिक में विकीर्ण हो जाती हैं, जैसे नदी की धार में मरोड़ पाते ही पत्थरों को चूर्ण-चूर्ण होना ही पड़ता है और वह एक स्वस्थ प्रवाह लिये बह उठती है, वैसे ही आत्मा में 'समर्पण' के भाव के उगते ही परमात्म-प्रकाश उदित हो उठता है। ऐसा नहीं है कि अपना समर्पण करने के लिये उसे किसी अन्य ब्रह्म के पास जाना पड़ा हो। जब समर्पण के सहारे प्रात्मा स्वयं ब्रह्म बन सकती है तो उसे अपना समर्पण सहैतूक बनाने की क्या आवश्यकता । सहैतुक तो वहाँ हो जहाँ द्वित्व हो, भेद हो, पृथक्करण हो । यहाँ तो एक ही चीज है । 'स्व' के प्रति 'स्व' का यह समपण जितना 'अहैतुक' हो सकता है, अन्य नही । यदि यह कहा जाय कि 'परमात्मा' जीवात्मा से किसी न किसी रूप में तो भिन्न है ही, अत: 'स्व' का 'स्व' के प्रति 'अहैतक समर्पण' कैसा ? तो आप जिनेन्द्र को जीवात्मा से पृथक मानिये, फिर भी 'अहैतुक समर्पण' में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। जिनेन्द्र वीतरागी हैं, वे किसी से राग नहीं करते, अर्थात् न किसी को पुत्र देते हैं, न धन और न मोक्ष । ऐसे भगवान् से जो प्रेम करेगा, वह यह सोचकर ही करेगा कि प्रेम के उपलक्ष्य में भगवान् से लौकिक अथवा पारलौकिक किसी भी प्रकार की उपलब्धि न हो सकेगी। यहाँ 'दोनों ओर प्रेम पलता है' वाली बात नहीं निभ पाती। प्रेमी प्रेमास्पद की वीतरागता पर रीझ कर ही प्रेम करेगा। उसे बदले में कुछ न चाहिये । न कोई शर्त होगी, न कोई स्वार्थ । तो जैन परम्परा के मूल में ही कुछ ऐसा दर्शन सन्निहित है, जहाँ सहैतुक प्रेम को स्थान ही नहीं है। यहाँ प्रेमी का प्रेम एकान्तिक है-एकनिष्ठ है । किन्तु प्रश्न तो यह है कि जब पालम्बन १. भूधरदास, दर्शन स्तुति, चौथा पद्य, वृहज्जिनवाणी संग्रह, प० पन्नालाल बाकलीवाल सम्पादित, सम्राट संस्करण, मदनगंज, किशनगढ़, सन् १९५६ ई०, पृष्ठ ४० । २. देखिये 'जन मक्ति काव्य की पृष्ठ भूमि', प्रथम अध्याय, पृष्ठ १७ ॥ THORIPATRANEPARASHAR Ema मोफ55) फका १२० 95मका
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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