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________________ की फटकार यद्यपि मधुरता से प्रोत-प्रोत है, किन्तु कहीं-कहीं उन्होंने भक्ति की मर्यादा का प्रतिक्रमण किया है। एक उदाहरण देखिए पतित पावन हरि, विरद तुम्हारो, कौने नाम धर्यो। हों तो दीन, दुखित, मति दुरबल, द्वारे रटत पर्यो । किन्तु, बानतराय के उपालम्भ में कैसी शालीनता है तुम प्रभु कहियत दीनदयाल । प्रापन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जग जाल ।। तुमरो नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल । तुम तो हमको कछू देत नहिं, हमरो कोन हवाल ।। तुलसी और जैन कवि दोनों ने ही भगवान् के लोकरंजनकारी रूप की महत्ता स्वीकार की है । रूप लोकरंजनकारी तभी हो सकता है, जब सौंदर्य के साथ-साथ शक्ति और शील का भी समन्वय हो। जिनेन्द्र में राम के समान ही सौन्दर्य और शील की स्थापना हुई है, किन्तु शक्ति-सम्पन्नता में अन्तर है। राम का शक्ति-सौन्दर्य असुर तथा राक्षसों के संहार में परिलक्षित हुआ है, किन्तु जिनेन्द्र का प्रष्टकर्मों के विदलन में । दुष्टों को दोनों ने जीता है, एक ने बाहुबल से और दूसरे ने अध्यात्मशक्ति से । एक ने असत् के प्रतीक मानव को समाप्त किया है और दूसरे ने उसे सत् में बदला है । जैन कवियों के मध्यकालीन काव्य में शांत-भाव प्रधान है । जैन आचार्यों ने नौ रसों में शृगार के स्थान पर 'शांत' को रसराज कहा है । उनका कथन है कि अनिर्वचनीय प्रानन्द की सच्ची अनुभूति राग-द्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जाने पर ही होती है । राग-द्वेष से सम्बद्ध अन्य आठ रसों के स्थायी भावों से उत्पन्न आनन्द में वह गहरापन नही होता, जो 'शांत' में पाया जाता है। स्थायी प्रानन्द की दृष्टि से शांत ही एकमात्र रस है। कबि बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' में 'नवमों सान्त रसनि को नायक' माना है। उन्होंने तो पाठ रसों का अन्तर्भाव भी शांत रस में किया है। डॉक्टर भगवानदास ने भी अपने 'रस-मीमांसा' नाम के निबध में, अनेकानेक संस्कृत उदाहरणों के साथ शांत को 'रसराज' सिद्ध किया है । भक्ति के क्षेत्र में तो अजैन प्राचार्यों ने भी शांत को ही प्रधानता दी है । उन्होंने अपनी भक्ति-परक रचनामों में प्रेम और सौन्दर्य का भी प्रयोग किया है, किन्तु प्रधानता शांत को ही दी है । कवि बनारसीदास ने शांत 995 १०७ स
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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