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________________ एकमेक करने में भले ही न हो, उतरती हैं। द्वितीय थे । उनमें तुलसी जैसी भावुकता और तन्मयता किन्तु उनकी रचनाएँ महाकाव्य की कसौटी पर खरी ही 500 विनयपत्रिका मुक्तक पदों में लिखी गई है । तुलसीदास राग-रागनियों के विशेष जानकार कहे जाते हैं । किन्तु, अभी जयपुर आदि के जैन शास्त्र भण्डारों की खोज से पता चला है कि जैन कवियों का रखा हुआ पद-साहित्य भी विपुल है । मध्यकालीन भारत में जयपुर, ग्वालियर और आगरा संगीत के केन्द्र थे । अधिकांशतया जैन कवि इन्हीं स्थानों पर उत्पन्न हुए प्रथवा यहाँ उन्होंने अपना साहित्यिक जीवन व्यतीत किया । उनके पदों में अनेक राग-रागनियों का समावेश हुआ है । उनके पद भाव, भाषा और संगीतात्मकता के कारण गमलों में सजे गुलदस्तों की भाँति प्रतीत होते हैं । विनयपत्रिका के पदों में वह सौंदर्य नही है । जैन पद - साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें निर्गुण और सगुण दोनों ही प्रकार के भक्ति-भावों का समन्वय किया गया है । सिद्ध और अरहंत को क्रमशः निर्गुण और सगुण कहा जा सकता है। इन्हीं को प्राचार्य योगीन्दु ने 'निष्कल' और 'सकल' संज्ञा से प्रभिहित किया है ।" श्रात्मा और जिनेन्द्र के रूप को एक मानने के कारण ही यह समन्वय संभव हुआ है । यद्यपि विनयपत्रिका के अधिकांश पदों की शैली निर्गुण काव्य-जैसी प्रतीत होती है, तथापि उनका मूल स्वर सगुण-भक्ति से ही सबद्ध है। ऐसा मालूम होता है, जैसे तुलसी निर्गुण ब्रह्म की ओर ललककर देखने का चाव बारम्बार रखते हैं, किन्तु किसी अनिवार्य विवशता के कारण वे पकड़ते हैं सगुण ब्रह्म को ही । दोनों के मध्य में वे सफलतापूर्वक मध्यस्थता नही कर सके हैं। इस अन्तर के होते हुए भी जैन और तुलसी दोनों के ही पदों में विनयवाली बात समान है । तुलसी की भाँति ही जैन कवियों ने भी अपने श्राराध्य देव से भव-भव में भक्ति की याचना की है । १५ वीं शताब्दी के उपाध्याय जयसागर ने 'चतुविशति जिनस्तुति' में लिखा है करि पसाउ मुझ तिम किमई, महावीर जिरणराय । stu भवि ग्रहवा अन्न भवि, जिम सेवउ तु पाय ।। १, परमात्मप्रकाश, १-२५, पृ० ३२ । 55555555 १०५ 55 5666665
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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