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________________ 0000 कथानक में कल्पनाएं तो हैं, किन्तु उनमें वैसी प्रसम्भवनीयता नहीं मा पाई है, जैसी कि पदमावत में पाई जाती है । यह कथानक मानव जीवन के प्रषिक निकट है । भाषा सशक्त और सजीव है । उसमें गतिमयता है । स्वाभाfarar मोर सहजता है । भाव भोर अनुभूतियों के अनेक चित्र हैं । कवि में चित्राङ्कन की शक्ति है । बीच-बीच में अध्यात्म को सहज हिलोरे हैं, जो कथानक के सम्बन्ध - निर्वाह में अटकाव नहीं डालतीं । प्रेम का स्पन्दन है, वीरता का उत्साह और अध्यात्म की पावनता। कहीं किसी धर्म के प्रति प्राग्रह नहीं, हठ नहीं । सब कुछ काव्यमय है । पद्मावत के साथ उसका अध्ययन विद्वानों को रुचेगा, ऐसा मुझे विश्वास है । भूवरदास का पार्श्वपुराण महाकाव्य है । इसकी रचना वि० सं० १७८६, आषाढ़ सुदी ५ को आगरा में पूर्ण हुई। इसमें 8 अधिकार हैं। भगवान पार्श्वनाथ की जन्म से ही नहीं, किन्तु पूर्वभवों से लेकर निर्वाण- पर्यन्त की कथा है। सम्बन्ध निर्वाह है- कहीं शिथिलता नहीं । श्रवान्तरकथाएँ मुख्यकथा की पुष्टि मौर अभिवृद्धि करती हैं । नायक क्षत्रिय राजकुमार और तीर्थंकर है । शान्तरस की प्रधानता है, और वैसे अन्य रसों का भी उपयुक्त समावेश हुआ है । दोहाstart at बहुत अधिक प्रयोग है । कहीं-कहीं सोरठा भोर छप्पय भी आये हैं । विविध प्राकृत दृश्यों का चित्रण है । प्रारम्भ और अन्त में मंगलाचरण है । इस भांति महाकाव्य के सभी लक्षण इसमें वर्तमान हैं । यद्यपि यह अपभ्रंश के वीर कवि के 'जम्बू स्वामीचरिउ' और हरिभद्र के 'मिरगाह चरिउ' की भांति ही परम्परानुमोदित है, किन्तु फिर भी मन उसे मौलिक कहना चाहता है। मन की यह चाहना प्रकारणिक और निर्बन्ध नहीं है। पार्श्वपुराण की प्रवान्तरकथानों की रसमयता, घटनानों को चित्रोपमता, उपमा श्रौर उत्प्रेक्षात्रों की सजीवता, उसे अन्तस्थल तक उतारने में समर्थ है। कोई सहृदय पाठक उसके काव्यरस में बूडे बिना नहीं रह सकता । प्रसादगुण भूधरदास में जैसा मूर्तिमन्त हुआ, मध्य काल के अन्य किसी कवि में नहीं । पार्श्वपुराण तो उसका प्रतीक ही है । श्राज से वर्षों पूर्व हिन्दी के समर्थ समीक्षक पं० नाथूराम प्रेमी ने इसे हिन्दी का उच्चकोटि का काव्य कहा था । श्राज उसके पुनः सम्पादन और प्रकाशन की मावश्यकता है । मध्यकालीन हिन्दी में अनेक वरित काव्यों का निर्माण हुआ । उनमें कुछ प्रबन्ध काव्य थे और कुछ खण्डकाव्य । यद्यपि उनकी संज्ञा 'चरित' या 'चरिउ' थी, किन्तु उनके कथासूत्र संगुम्फित श्रीर काव्य-सौष्ठव मनोरम था । फफफफफ $47474CALAFIEAE
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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