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________________ हिन्दी । धर्मशास्त्री नारद ने लिखा है कि "संस्कृतैः प्राकृतक्यैिर्यः शिष्यमनुरूपतः । देषभाषाधुपायैश्च बोधयेत् स गुरुः स्मृतः ॥" डा० काशीप्रसाद जायसवाल का कथन है कि देशभाषा आचार्य देवसेन ( वि० सं० १६० ) के पहले ही प्रचलित हो चुकी थी। प्राचार्य देवसेन ने अपने 'श्रावकाचार' में जिन दोहों का उपयोग किया है, उनकी रचना देशभाषा में हुई है । इस श्रावकाचार की एक हस्तलिखित प्रति कारंजा के सेनगण मन्दिर के पुस्तक भण्डार में प्रस्तुत है। इसमें प्रयुक्त शब्दरूप, विभक्ति और धातुरूप प्रायः सभी हिन्दी के हैं। कहीं-कहीं छन्द सिद्धि के लिए प्राकृत रूप रह गये हैं। हिन्दी काव्यों में उनका प्रयोग आगे चलकर भी होता रहा । श्रावकाचार में जिनेन्द्र और पंचगुरु-भक्ति के अनेक उद्धरण हैं । एक स्थान पर लिखा है, "जो जिण सासरण भासियउ सो भइ कहियउ सार । जो पालेसइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु ।।" कुछ विद्वानों ने अपभ्रश और देशभाषा को एक मान लिया, परिणामतः उन्होंने अपभ्रंश कृतियों को भी हिन्दी में ही परिगणित किया है। महा पण्डित राहल सांकृत्यायन की 'हिन्दी काव्यधारा' इसका निदर्शन है। यह सच है कि 'कथासरित्सागर' के आधार पर 'अपभ्रंश' और 'देशी' समानार्थक शब्द थे, 3 किन्तु यह वैसा ही था जैसा कि पतञ्जलि के महाभाष्य में प्राकृत और अपभ्रश को समानार्थक माना गया है। भाषा-विज्ञान के अध्येता जानते है कि भाषाओं का स्वभाव विकसनशील है। मुखसौकर्य के लिए भाषाए निरन्तर समासप्रधानता से व्यासपरकता की ओर जाती रही हैं। प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रश से देशीभाषा अधिकाधिक व्यासप्रधान होती गयी है । यह ही दोनो में अन्तर है । अतः दोनों को एक नही माना जा सकता । स्वयम्भू ( ६ वी शताब्दी वि० सं० ) का 'पउमचरिउ' नितान्त अपभ्रश ग्रन्थ है । उसमें कहीं देशी भाषा का एक भी शब्द प्रयुक्त नही हुआ है । कवि पुष्पदन्त (वि०सं० १०२६) ने 'रणायकुमारचरिउ' में अपनी सरस्वती को नि:शेष देश भाषाओं का बोलने वाला भले ही कहा १ वीर मित्रोदय से उद्धृत । २. डा. काशीप्रसाद जायसवाल का लेख 'पुरानी हिन्दी का जन्मकाल', नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग ८, पृ० २२० । ३. कथासरित्सागर, १।६, पृ० १४८ । ४ पातञ्जल महाभाष्य, १११, पृ० १ wapmom hණියෙන් NALHAAR burnima A ManisathwwATIONAL
SR No.010115
Book TitleJain Shodh aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain
PublisherDigambar Jain Atishay Kshetra Mandir
Publication Year1970
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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