SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ जैनशिलालेख - संग्रह [ २३ दूसरा पत्र : दूसरा भाग ११ प्रतिमानवरत पूजार्थं शिक्षकग्लान वृद्धानां च तपस्विनां वै१२ यावृत्यार्थ ग्रामस्योत्तरतः पूर्वोणग्रामविरेयसीमकं द१३ क्षिणेन मुम्जजलमार्गपर्यन्तं घपरतः एन्दावीरुत्स १४ हितवल्मीकं तस्मादुत्तरतः पुष्करणी ततश्च यावत् पूर्वविरेय१५ कं राजमानेन पंचाशन्निवर्तन प्रमाणक्षेत्रन्द तीसरा पत्र १६ तवानेतद् यो हरति स पंचमहापातकसंयुक्तो भवति ॥ उक्तञ्च १७-२० बहुभिर्वसुधा मुक्ता - ( नित्य के शापात्मक श्लोक ) [ यह ताम्रपत्र सेन्द्रक वंशके अधिराज विजयानन्द के पुत्र इन्द्रणन्द-द्वारा जम्बूखण्डगणके आचार्य आर्यणन्दिको दिया गया था । अर्हत्प्रतिमाकी पूजा के लिए तथा तपस्वियोंकी सेवाके लिए जलार ग्रामके पासकी कुछ भूमि उन्हें दी गयी थी । राजा इन्द्रणन्द राष्ट्रकूट वंशके देज्ज महाराजका सामन्त था । इस ताम्रपत्रका काल आगुप्तायिक राजाओंका ८४५वाँ वर्ष इस प्रकार कहा है । किन्तु इसमे कौन-सी कालगणना अभिप्रेत है यह स्पष्ट नहीं क्योंकि लिपिको दृष्टिसे यह ताम्रपत्र छठी या सातवी सदीका प्रतीत होता है । ] [ ए० ई० २१ पृ० २८९ ] २३ चितरल (केरल) ७वीं सदी, तमिल भगवती मन्दिरके लिए प्रसिद्ध तिरुच्छाणत्तुमलै पहाड़ी पर [ इस लेखमे अरिट्टनेमि भटारके शिष्य गुणन्दागि कुरट्टिगल-द्वारा देवीके लिए कुछ सोनेके आभूषण दान देनेका निर्देश है । यह लेख विक्रमादित्य वरगुणके २८ वें वर्षका है । ] [ इ० म० तिरुवांकुर २ ]
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy