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________________ प्रस्तावना ३३ विष्णु या शिवके मन्दिरोंमें ले जाये गये हैं । इसका महत्त्वपूर्ण उदाहरण कोल्हापुरका महालक्ष्मी मन्दिर है जहाँके कुछ स्तम्भोंपर पार्श्वनाथमन्दिर सम्बन्धी लेख मौजूद हैं ( क्र० २२२ ) । आन्ध्र प्रदेशमें अन्मकोण्ड पहाड़ीपर देवी पद्मावतीका मन्दिर था जो बादमें पूरी तरह ब्राह्मणोंके अधिकारमें चला गया ( क्र० १९७ ) । इस तरहके अन्य उदाहरण भी हैं । ५ समारोप - जैनधर्म, साहित्य तथा समाज के इतिहासके लिए शिलालेखोंका महत्त्व सर्वमान्य है । अबतक इस संग्रहके लेखोंसे प्राप्त तथ्योंका जो विवरण दिया है उससे यह बात अतिस्पष्ट होगी । इस ऐतिहासिक जानकारीका उपयोग कर जैन साहित्य तथा कथाओंकी प्रामाणिकता परखना आवश्यक है । साहित्यिक तथा शिलालेखीय दोनों साधनोंके समन्वित उपयोगसे ही तथ्यपूर्ण इतिहासका निर्माण सम्भव है । इस संग्रह के अन्त मे तीन परिशिष्ट दिये है । पहले परिशिष्टमे इस संग्रहकी तैयारी के समय जो श्वेताम्बर लेख हमारे अवलोकन में आये उनकी सूची दी है। दूसरे परिशिष्टमे उन जैनेतर लेखोंकी संक्षिप्त जानकारी दी हैं जिनमे जैन व्यक्तियोसे संबद्ध कुछ उल्लेख है । तीसरे परिशिष्टमे नागपुर के समस्त मूर्तिलेखों का संग्रह है । यह संग्रह आजसे कोई २५ वर्ष पहले श्रीमान् शान्तिकुमारजी ठवलीने तैयार किया था जो कई कारणोसे race प्रकाशित नही हो सका। इस पुस्तकमे प्रस्तुत संग्रहको अन्तर्भूत करने की अनुमति के लिए हम श्रीठवलीजीके आभारी है । हमें आशा है कि इन तीन परिशिष्टो से प्रस्तुत संग्रह अभ्यासकोंके लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होगा ।
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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