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________________ - ४८७ ] येडेहलिके लेख ३३१ १७ कलु केरेपरिविंद ब (ड) गलु || पहुवलु गुरुवध्य हेमरुवन तो१८ टदिदं मूडलु । बढगलु हानम्बियिंद तेंकलु । यिती चतुस्सि १९ मेवलगुल्क | निधि । निक्षेपजल । पासण अक्षोणि । आगमि । सिद्धमां २० ध्यंगलेंब । श्रष्टाभोग तेजसाम्यबलु नीड निम्म शिष्वरुपा२१ रम्पर्यवागि सुखदिं बोगिसि बहिरि यन्दं बरसि कोट क्रय शा२२ सन पटे दिक्के अबिलासे बिटवरु देवलोक मर्त्यलोक विर२३ हित । श्रीहत्य | गोहत्यक्क बजिनरहरू । विरपत्र२४ डेरु श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री [ यह लेख आश्विन शु० १०, रविवार, शक १५०६, तारण संवत्सर के दिन लिखा है । इसमें दानिवासके शासक चेन्नरायके पौत्र तथा चिक्कवीरपके पुत्र चेनवोरप्प वडेरद्वारा गरसोप्पेके वीरसेनदेवको कुछ भूमि दी जानेका उल्लेख है । वीरसेनके गुरु गुणभद्र तथा प्रगुरु समंतभद्र थे । उन्होंने ३२ वराह मूल्य देकर यह भूमि खरीदी थी जो पहले भालेपाल aratपके पुत्र लिंगurat थी और उसके सन्तानरहित स्थिति में मृत्यु होने से राजाधीन हुई थी । यह भूमि नागलापुर गाँवके क्षेत्रमें थी । ] [ ए०रि० मं० १९३१ पृ० १०४ ] ४८८७ येडेहलि (मैसूर) शक १५०७ = सन् १५८५, कड 3 सुभमस्तु । नमस्तुंगशिरश्धुं विचंद्रचामरवा २ वे त्रैलोक्यनगरारं ममूळस्तं माय शंभवे (1) स्व ३ स्ति श्रीजन्याभ्युदय शालिवाहनशकवरूप १५०७ ४ संद वर्तमान पार्थिवसंवत्सरद वयित्र व ७ मि आदि
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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