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________________ -११६] तेरकणांविका लेख २९५ .. १६ काव्यगोष्ठि-सरसं विद्विष्टशैलाशनि सुरपुरमोदलान्तगल मीन__ केतूद्धर रूपं सद्गुणोदय१७ हमयन एनल आश्चर्यमे मायणाय । (5) इन्तु 'होयसक भूविभुलक्ष्मीलपनमुं १८ श्रीवीरबुक्कराजसाम्राज्यरमारमणीयविलासदर्पणोपमं एनिसि सोगयिसुव होसपट्टणदोलु प्रसिद्धिवडेद - १९ श्थ मायण्ण माकप्पगलु न""दवागि माडिद श्रीलक्ष्मीसेन मटारकर निषधिय प्रतिष्ठे शासन मंगल महा श्री श्री श्री श्री श्री [ यह निषिधिलेख सेनगणके लक्ष्मीसेनभट्टारकको मृत्युका स्मारक है। इनको गुरुपरम्परा इस प्रकार थी - वीरसेन - जिनसेन - गुणभद्र विद्या ! देव - सूरसेन - कमलभद्र - देवेन्द्रसेन - कुमारसेन - हरिसेन -प्रभाकरसेन - लक्ष्मीसेन । लक्ष्मीसेनके गुरुबन्धु मदनसेन थे। यह निषिधि बलगार वंशके मायण तथा माकण नामक दो वैश्यों-द्वारा स्थापित की गयी थी। ये होसपट्टणके निवासी थे। यह नगर होयसल प्रदेशमें था तथा वीरबुक्कराजके राज्यके अन्तर्गत था। ] [ए० रि० मै० १९२७ पृ० ६१] ४१६ तेरकणांवि ( मैसूर) १४वों सदी, कन्नड १ स्वस्ति श्रीमूलसंघ देशियगण पुस्तक२ गच्छ कोंडकुंदान्वय हनसोगेय बलि३ य राजगुरु ( मंड) लाचार्यरुमप्प ( सम )५ यामरण ललितकीर्तिमहारकरु मादिसिद ५ (प्रतिमे ) मंगळ महा श्री श्री श्री
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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