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________________ -104] arनन्दी आदि लेख ३७४ तवनन्दी (मैसूर) १३वीं सदी, कड १ श्रीमद् दविल ३ वे रंगले - १ स्वस्ति श्रीमूलसंच सूर ३ प्रतिबद्ध [ यह छोटा-सा लेख एक खण्डित जिनमूर्तिके पादपीठपर है । मूलसंघ-सूरस्तगण चित्रकूटान्वयके किसी व्यक्ति द्वारा यह मूर्ति स्थापित की गयी थी । लिपि १३वीं सदीकी है । ] [ ए०रि० मै० १९४२ पृ० १८५ ] ३७५ वरुण ( मैसूर ) १३वीं सदी, संस्कृत-कड ५ श श्रीपाल ७ तच्छिष्यो विदुषां २ स्तगण चित्रकूटान्वयद ९ मुनीश्वरः तस्य ११ धर्मसेनमहा १३ शुद्ध ( ) स्वमावस्तो १५ त्यक्तो जिनपदाप्रे २ संगस्य नन्दिसं ४ मयेऽशेषशास्त्र ६ मुनिराश्रियः २६९ श्रेष्ठः पद्मप्रभ १० पुत्रः तपोसी १२ मुनिः ॥ सोयं १४ बाह्यां (त) परिग्रहा १६ त्रिदिवं गतवान् बुध १७: [ इस लेखमें द्रविलसंघ- नन्दिसंघ - अमंगल अन्वयके आचार्य श्रीपाल के प्रशिष्य तथा पद्मप्रभके शिष्य धर्मसेनके समाधिमरणका उल्लेख है । लेखकी लिपि १३वीं सदीको प्रतीत होती है । ] [ ए०रि० मं० १९४० १० १७२ ]
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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