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________________ - ३२७ ] हलेबोडका लेख २५३ १४ तोरूर्जितवस्तिपरः सप्ततरथप्रवेदी । प्रायश्चित्तादिषट्क द्विगुणित सुतपाश्रयं १५ वर्यप्रसिद्धो द्वात्रिंशद्भागसद्भावनयुत सकलेन्दु तन्द्रो विभाति ॥ (९) एवं कतिपय १६ काळे प्रवर्तिते सकल चन्द्रमु - १७ निरायाति ( ॥ १०) सत्पाण्ड्यदेशमध्यस्थित बिलिचाग्राम चैत्यगृहमासाद्य ज्ञात्वा स्वान्त्यं ग्रामनगरखेडेषु तत्रत्या मज्योत्पलविकाशयन् १८ त्रिदिनादनशन विधिना त्रिविष्टपं संप्राप्तः ॥ ( ११ ) सप्ताग्रबाणेन्दुशशिप्रमाब्दशकाख्यके म १९ न्मथवत्सरे च सत्फाल्गुने शुद्धतृतीय केन्दुवारेगमत् श्रीसकलेन्दुदेव: ॥ (१२) अरुहं नमः २० श्रीमद्वीरणन्दि सिद्धान्त चक्रवर्तिगल सधर्मस्य बाहुबलिसिद्धान्तिदेवरे दीक्षा २१ गुरुगल श्रीमदर्हणन्दित्रैविद्यदेवर श्रुतगुरुगलुमप्प श्रीस२२ कलचन्द्र भट्टारकदेवर्गे श्रीमद्रराजधानि दोरसमुद्रद समस्तमन्य२३ नगरंगल् परोक्षविनयार्थवागि माडिसिद मंगलमहाश्रीश्री [ यह निसिधिलेख राजधानी दोरसमुद्रके नागरिकोंने सकलचन्द्र भट्टारकके समाधिमरणकी स्मृति में स्थापित किया था । वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती गुरुबन्धु बाहुबलि सिद्धान्तीसे दीक्षा लेकर अर्हन्दि मुनीन्द्रके पास सकलचन्द्रने शास्त्राध्ययन किया था। उनकी मृत्यु पाण्ड्य देशके बिलिचा ग्राममें फाल्गुन शु० ३, सोमवार शक १९५७ मन्मथ संवत्सरके दिन हुई थी । वे मूलसंघ - कोण्डकुन्दान्वयदेशीयगणके आचार्य थे । ] [ ए०रि० मं० १९२९ पृ० ७४ ]
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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