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________________ जैनशिलालेख संग्रह की दृष्टिसे कोई खास भेद नहीं था । इन सभी संघोंके मुनि मठ-मन्दिर बनवाते थे, उनके लिए खेत, घर, बगीचे, गाँव आदिका दान ग्रहण करते थे, राजसभाओं में वादविवाद करते थे, प्रसंगानुकूल राजकार्यमे मदद देते थे तथा मन्त्रसाधना, ज्योतिष और वैद्यकका आश्रय लेकर जैन संघका प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करते थे । ये सब प्रवृत्तियाँ जैन साधु के मूलभूत उद्देश - वीतराग भावकी साधनाके कहाँतक अनुकूल है यह प्रश्न विचारहै । इन्हे रोकने का ऐसा कोई व्यवस्थित प्रयत्न दिगम्बर सम्प्रदाय में हुआ हो ऐसा प्रमाण नहीं मिला है । १ १६ यह तो नही कहा जा सकता कि दिगम्बर साधुसंघ के सभी मुनि इस प्रकारकी प्रवृत्तिप्रधान गतिविधियोमे ही मग्न रहते थे - साधुसंघका एक वर्ग अवश्य ही प्राचीन शास्त्रोक्तमार्गका निःस्पृह भावसे अनुसरण करता रहा होगा । किन्तु लौकिक कार्योंमे दूर रहनेके कारण इन वीतराग साधुओंका शिलालेखो आदिमे वर्णन मिलना कठिन है । ३. राजवंशोंका आश्रय (अ) उत्तर भारत के राजवंश - प्रस्तुत संग्रहमे जैन संघका सम्मान करनेवाले जिन राजवंशोका उल्लेख है उनमे कलिंगके राजा खारवेलका वंश प्रथम व प्रमुख है । सन्पूर्व पहली सदीमे इस वंशके तीन राजपुरुषोंद्वारा जैन साधुओके लिए खण्डगिरि पर्वतपर कई गुहाएँ बनवायी गयी । खारवेलको पटरानी, महाराज कुदेपश्री तथा कुमार वडुख ये वे तीन राजपुरुष है ( ले० ३-५ ) । यहींके एक लेख ( क्र० ९) मे नगरके न्यायाधीश १. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इन प्रवृत्तियोंको रोकनेके कुछ प्रयत्न होते रहे हैं । इस विषय में पं० नाथूरामजी प्रेमीका लेख 'चैत्यवासी और वनवासी' ( जैन साहित्य और इतिहास -द्वितीय संस्करण ) देखने योग्य है। 1
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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