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________________ प्रस्तावना इस तरह प्रस्तुत संग्रहके १३ लेखोंसे सेनगणका अस्तित्व आठवीं सदोसे सत्रहवीं सदी तक प्रमाणित होता है। (आ २ ) देशीगण-प्रस्तुत संग्रहमे देशोगणके पुस्तकगच्छ, आर्यसंघग्रहकुल, चन्द्रकराचार्याम्नाय, तथा मैणदान्वय इन चार परम्पराओंका उल्लेख हुआ है। पुस्तकगच्छका एक उपभेद पनसोगे ( अथवा हनसोगे) बलि था। इसका पहला उल्लेख (क्र. ७४) दसवों सदीके प्रारम्भका है तथा इसमें श्रीधरदेवके शिष्य नेमिचन्द्रके समाधिमरणका उल्लेख है। इस बलिका दूसरा लेख ( क्र० २७२ ) सन् १९८० के आसपासका है तथा इसमें नयकोतिके शिष्य अध्यात्मी बालचन्द्र-द्वारा एक मूर्तिको स्थापनाका वर्णन है। इस गाखाके चार लेख और हैं (क्र० २९२, ३३५, ४१६ तथा ५३८ ) जो बारहवोंसे चौदहवी सदी तकके है। इनमें ललितकीर्ति, देवचन्द्र तथा नयकीर्ति आचार्योका उल्लेख है । अन्तिम लेखमे 'धनशोकवलो' इस प्रकार इस शाखाके नामका संस्कृतीकरण किया गया है। पुस्तकगच्छका दूसरा उपभेद इंगुलेश्वर बलि था। इसका उल्लेख सात लेखोमे (क्र० २९०, ३१०, ३६९, ३७८, ३८२, ६०६, ६४२ ) मिला है। ये सब लेख १२वीं - १३वीं सदीके है। तथा इनमें हरिचन्द्र, श्रुतकीर्ति, भानुकीर्ति, माघनन्दि, नेमिदेव, चन्द्रकीर्ति तथा जयकोति १. सेनगणकी पुष्करगच्छ नामक शाखा कारंजा (विदर्भ ) में १५वीं सदीसे २०वीं सदी तक विद्यमान थी। इसका विस्तृत वृत्तान्त हमारे ग्रन्थ 'महारक सम्प्रदाय' में दिया है। पुष्करगच्छ सम्मवतः पोगिरि गच्छका ही संस्कृत रूप है। २. यही इस संग्रहमें देशीगणका पहला उल्लेख है। पहले मंग्रहमें देशीगणके उल्लेख सन् ८६० (क्र. १२७ ) से मिले हैं तथा पनसोगे शाखाके उल्लेख सन् १०८० (क्र. २२३ ) से प्राप्त हुए हैं ।
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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