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________________ ૨૮ १ श्रीमद्राविलसं ३ न्वयद नन्दिगण ५ निगल शिष्यसन्त ७ जदेवर शिष्यरु ९ वरु होयसल - ११ अग्रगण्यरु स जैन शिलालेख संग्रह १७५ सागरकट्ट े (मैसूर) ११वीं सदी, कन्नड १३ दरवर सध १५ वरु निसिधियं २ घद श्रारंगला - ४ द शान्तिमु ६ति श्रीवादिरा [ १७५ ८ श्रीवर्धमानदे १० कालियदलु १२ न्यसनद मुडि ( प ) १४ मरु कमलदे१६ निरिसिदर [ इस लेखमे द्राविल संघ - अरंगल अन्वय-नन्दिगणके शान्तिमुनिकी परम्परा के वादिराजदेवके शिष्य वर्धमानदेवके समाधिमरणका उल्लेख किया है । वर्धमानदेवके गुरुबन्धु कमलदेवने उनको यह निसिधि स्थापित की थी । वर्धमानदेवको होयसल राज्य में प्रमुख कार्यकर्ताका स्थान प्राप्त था । लेखकी लिपि ११वीं सदी की है । ] [ ए०रि० मै ० १९२९ पृ० १०८ ] १७६ वेणगि ( जि० बेलगाव, मैसूर ) ११वीं सदी, कमड [ इस लेखकी लिपि ११वीं सदीकी है । लेखके समय ( रट्ट वंशके ) कार्तवीर्य ( द्वितीय ) का शासन कूण्डि ३००० प्रदेश पर था । इसे जिनेन्द्रपादसरोजभृंग तथा सेननसिंग कहा है । ] [रि० स० ए० १९४०-४१ ई० क्र० ८४ १० २४७ ]
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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