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________________ प्राकथन इसमें सन्देह नहीं है। यह कहना तो संभव नहीं है कि इन भागोंमे अबतक प्रकाशित सब लेख संगृहीत हो चुके है - तथापि अधिकांश लेखोंका संग्रह करनेकी हमने कोशिश की है। ____ यह स्पष्ट ही है कि इन प्रकाशित लेखोके अतिरिक्त अभी सैकड़ों लेख अप्रकाशित भी हैं - विशेषकर मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरप्रदेशके सैकड़ों मतियों तथा मन्दिरों आदिके लेखोंका अध्ययन अभी बहुत कम हुआ है । परिशिष्टमें दिये हुए नागपुर मूर्तिलेख संग्रहसे इस कार्यके विस्तारकी कल्पना हो सकती है। हमे आशा है कि इन लेखोंका संग्रह भी प्रस्तुत मालाके अगले भागोंमे प्रकाशित हो सकेगा। माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके प्रारम्भसे ही इसका कार्य स्व० नाथूरामजी प्रेमीने बहुत श्रद्धा तथा उत्साहसे संभाला था। हमे जैन इतिहासके अध्ययनमे उनसे बहुत प्रोत्साहन मिला है। खेद है कि इस पुस्तकके सम्पादनके पूर्ण होनेसे पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। हम उन्हे कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित करते है। प्रस्तुत संग्रहकी प्रेरणाके लिए हम आदरणीय डॉ० उपाध्येजीके भी ऋणी है। उटकमंडके प्राचीन लिपिविद् कार्यालयके प्रमुख डॉ. दिनेशचन्द्र सरकारसे वहाँके पुस्तकालयमे अध्ययनकी सुविधा मिली तथा वहाँके अन्य अधिकारी डॉ० गै एवं श्री० रित्तीसे अच्छा सहयोग मिला एतदर्थ हम उनके ऋणी है। उन सब विद्वानोंका ऋण तो स्पष्ट ही है जिन्होंने इन लेखोंका पहले सम्पादन किया था तथा विभिन्न पत्रिकाओंमे उन्हें प्रकाशित किया था। ___ अन्तमें कन्नड भाषा अथवा इतिहासके अज्ञानवश जो त्रुटियाँ रही हो उनके लिए हम पाठकोसे क्षमा चाहते हैं। जावरा - दिसम्बर १९६१ - वि० जोहरापुरकर
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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