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________________ ११६ गण्डरादित्य के सम्बन्ध में ले० नं० २५० में उल्लेख है कि उसने जैन मुनियों के लिए एक भवन दान में दिया था। उसकी महामण्डलेश्वर उपाधि थी । भोजदेव के सम्बन्ध में अन्यत्र उल्लेख से मालुम होता है कि उसके दरबार में रहकर सोमदेव ने शब्दार्णव चन्द्रिका बनायी थी । ६. रट्ट वंश - इस वंश के अनेक लेख इस सग्रह में दिखाई देते हैं । इस वंश के राजे जैन धर्म के संरक्षक राष्ट्रकूट एवं चालुक्य नरेशों के सामन्त थे । हुल्स महोदय की मान्यता है कि इस वंश का व्यवहारो नाम रह था जब कि राष्ट्रकूट अलंकारिक एवं शाही रूप था। जो भी हो, रट्ट लोग राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के समय से प्रभाव में श्राये थे । सौंदत्ति से प्राप्त एक लेख ( १३० ) से मालुम होता है कि रट्टों में प्रथम जिसने प्रमुख अधिकारी होने का पद पाया था वह था मेरड का पुत्र पृथ्वीराम । उसे यह पद राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय की अधीनता में मिला था । उससे पहले वह मैलाप तीर्थ के कारे यगण के इन्द्रकीर्ति स्वामी का शिष्य था । ले० नं० १६० में पृथ्वीराम के पुत्र, प्रपोत्र एवं उनकी पत्नियों के नाम दिए गए हैं। संभव है ये सब सामन्त या महासामन्त थे । इसके बाद इस वंश की परम्परा का क्रम कुछ भंग हो गया है । वंशावली का द्वितीय अंश २०५ और २३७ वें लेख में वर्णित है, जिसमें न से सेन द्वितीय तक वंश परम्परा दी गई है । इन लेखों में तथा पीछे के लेखों में कार्तवीर्य को लत्तलुपुरवराधीश्वर तथा महामण्डलेश्वर आदि कहा गया है । ले० नं० ३६६, ४४६, ४४६, ४५३, ४५४ और ४७० इसी वंश से संबंधित है जिनमें सेन द्वितीय से ४-५ पीढ़ी तक अर्थात् कार्तवीर्य चतुर्थ, मल्लिकार्जुन और लक्ष्मीदेव द्वितीय तक की वंशावली दी गई है। ज्ञात होता है कि इस वंश का अभ्युदय ई० सन् ६७८ के लगभग से १२२६ ई० तक रहा । इस वंश के प्रथम पुरुष पृथ्वीराम ने राष्ट्रकूट वंश की अधीनता में वृद्धि की पर उसके उत्तराधिकारी शान्तिवर्मा से लेकर सेन द्वितीय तक कल्याणी के चालुक्यों की
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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