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________________ परग्ल ने अपने अधिपति नरेश से एक ग्राम दान में दिलाया था। उक्त लेख में दुरहुँ के जैन गुरु विमलचन्द्राचार्य का उल्लेख हैं। ३. शान्तर वंश-दक्षिण मारत में जैन धर्म को शक्तिशाली बनाने में शान्तरवंशी राजाओं का बड़ा भारो हाथ था। प्रस्तुत संग्रह के अनेक जैन लेख इस बात के प्रमाण है। शान्तरं राजाओं के वंश का नाम उग्रवंश था और सातवीं शताब्दी के लगभम पश्चिमी चालुक्य नरेश विनयादित्य के शासनकाल में यह वंश हमारे सामने प्राता है। राज्य के रूप में इस वंश को स्थापित करने वाले प्रथम पुरुष का नाम जैन लेखों में, जिनदत्तराय मिलता है । लेख नं. १४६ के अनुसार यह जिनदत्तराय कलस राजाश्रों के खानदान कनककुल में उत्पन्न हुआ था । उसने जिनामिषेक के लिए कुम्बसेपुर नामक गांव दान में दिया था। जिनदत्तराय के प्रताप का वर्णन ले० नं. १६८ में दिया गया है जिससे विदित होता है कि उसने पद्मावती देवी के प्रसाद को प्राप्त कर एक राक्षस के पुत्र को अपने भुजबल से भयभीत कर दिया था। ले० नं० २१३ और २४८ से जिनदत्तराय और उसके वंश के सम्बन्ध की अनेक सूचनायें मिलती हैं। इनसे मालुम होता है कि इस वंश की उत्पत्ति उत्तर भारत के मथुरा नगर में हुई थी और जिनदत्तराय ने पद्मावती के प्रसाद से पट्टिपोम्जुच्चपुर (वर्तमान हुम्मच ) में अपना शासन स्थापित किया था। इसके बाद शान्तर लोगों को राजधानी बहुत समय तक हुम्मच ही रही । इस वंश के अनेकों लेख भी हुम्मच से ही प्राप्त हुए हैं। जिनदत्तराय के वंश में कुछ समय बाद तोलापुरुष विक्रमशान्तर हुत्रा जिसने मौनिमट्टारक के लिए एक पाषाणवसदि (१३२ ) बनवाई थी। ले० नं. २१३ से विदित होता है कि विक्रम शान्तर ने एक महादान देकर सान्तलिगे हजार नाड नाम का एक मित्र राज्य स्थापित किया, इससे वह कन्दुकाचार्य, दानविनोद, विक्रमशान्तर इन तीन नामों से प्रसिद्ध हुा । उसका पुत्र चागि शान्तर हुश्रा जिसने चागि समुद्र का निर्माण कराया था। उक्त लेख से ज्ञात होता है कि चागि के बाद क्रमश: वीर, कन्नर, कावदेव, त्यागि, ननि, राय, चिकवीर अम्मन
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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