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________________ १११ जैन धर्म को अच्छी तरह संरक्षण प्रदान किया था। उसका उत्तराधिकारी उसका भाई अच्युत राय हुआ था। लेख नं. ६६७ में लिखा है कि वादि विद्यानन्द ने नरसिंह के कुमार कृष्णाराय के दरबार में परमतवादियों को अपने वाम्बल से परास किया था तथा उनके चरण कमलों को कृष्णराय के भाई अच्युतराय अपने मुकुट से पूजते थे । विजय नगर राज्य पर शासन करने वाले प्रारवीड वंश के दो नरेशों के राज्य काल के दो लेख नं. ६६१ ( सन् १६०८) और ७१० (सन् १६३७) भी इस संग्रह में उपलब्ध है। प्रथम लेख वेवयद्रि प्रथम के समय का है। जिसमें उसे राजाधिराज श्रादि उपाधियां दी गई हैं और उल्लेख है कि मेलिगे नामक स्थान में बोम्मण श्रेष्टो ने जिन मन्दिर बनवाकर अनन्त जिन की प्रतिष्ठा की थी। इसी तरह दूसरे लेख में बेङ्कटाद्रि द्वितोय का अनेक उपाधियों के साथ उल्लेख है । उसे कलिकाल अष्टम चक्रवर्ती कहा गया है । इस लेख में लिंगायत और जेनों के बोच उठे धार्मिक विवाद पर आपसी समझौता होने का उल्लेख है। विजय नगर राज्य के लेखों को देखने से हमें भली भांति ज्ञात होता है कि जनता के बीच विशेषतः नायकों और गौडों के बीच जैन धर्म प्रिय था। वे उसका विधिवत् पालन करते, दान देते तथा अन्त में समाधि विधि पूर्वक देहत्याग करते थे। हिरियावलि एवं नव निधि श्रादि ऐसे स्थान थे कि जहां समाधि विधि साधक श्राचार्य रहते थे । स्त्रियां अपने पति के मरने के बाद या तो सहगमन ' (सती होकर) या समाधि विधि से मरण करती थीं। सती प्रथा के दो तीन दृष्टान्तों से ज्ञात होता है कि जैन समाज हिन्दू संस्कारों से प्रभावित होने लगा था । उनके धार्मिक मामलों में बैष्णवों की ओर से भी समय समय पर बाधाएं श्राने लगी थीं। ६. मैसूर राज्यवंश:-मैसूर राज्य के सम्बंध के इस संग्रह में प्रायः वे ही लेख है जो कि जैनशिलालेख संग्रह प्रथम भाग में वर्णित हैं । केवल दो लेख नं० ७५८ १. देखो, लेख नं० ५५६, ५७४, ६०५, -
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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