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________________ १.०४ दानादि कार्यों का वर्णन जैन महिलाओं के प्रकरण में दिया गया है। विष्णुवर्ष से सम्बन्धित प्राय: सभी लेखों में उसके जैन सेनापतियों मन्त्रियों एवं जो कि प्रसंगानुसार पृथक् दानादि कार्यों का वर्णन है अफसरों की शुर वीरता, किया गया है । यद्यपि विष्णुवर्धन ने होयसल वंश को दक्षिण भारत की राजनीति में समुबनाया था और अपने वंश के पूर्व अधिपति चालुक्य वंश से बहुत कुछ स्वतंत्र कर लिया था, पर वह सम्राट् का पद धारण न कर सका । लेख नं० २६५ से सिद्ध होता है कि वह चालुक्याभरण त्रिभुवनमल्ल ( विक्रमादित्य ठ) का आधिपत्य स्वीकार किया था। उसके अन्तिम वर्षों के लेखों (३१८ आदि) में भी उसे महामण्डलेश्वर कहा गया है । इतिहासज्ञों की मान्यता है कि विष्णुवर्धन सन् १९४० ई० में दिवंगत हुआ और उसका बेटा नरसिंह ( प्रथम ) गद्दी पर श्रारूढ़ हुआ । यद्यपि विष्णुवर्धन के राज्यकाल का उल्लेख करने वाले लेख सन् १९४६ ई० तक के मिलते हैं पर या तो वे पुराने लेखों की पुनरावृत्ति हैं या जाली हैं। जैन लेखों में ऐसा ही एक लेख (३१८ ) उसकी मृत्यु के दो वर्ष बाद का है । विष्णुवर्धन को नर सिंह के अतिरिक्त एक और पुत्र था । ले० नं० २६३ ( सन् ११३० ई० ) से ज्ञात होता है कि उसका ज्येष्ठ पुत्र श्रीमन् त्रिभुवनकुमार बल्लालदेव राज्य कर रहा था। उसकी बहिनों में सबसे बड़ी हरियब्बरसि थी जो जैन धर्मपरायण थी । उक्त राजकुमार के संबंध में इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं । नरसिंह प्रथम के राज्यकाल के भी अनेकों लेख इस संग्रह में दिये गये हैं ( ३२४, ३२८, ३३३, ३३६, ३४७, ३४८, ३५१, ३५२, ३५६, ३६३, ३६७ ) । ये सामन्तों, सेनापतियों एवं अफसरों से सम्बन्धित हैं । लेख नं० ३४८१ से ज्ञात होता है कि उक्त नरेश के भाण्डागारिक एवं मंत्री हुल्ल ने 1 ९. वही- ले० नं० १३८.
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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