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________________ केशि के आभित कवि रविकीर्ति ने पाषाण का एक जैन मन्दिर शक सं० ५५६ में बनवाया था। इस वंश के अन्य ले. नं० १११, ११३, ११४ से शात होता है कि चालुक्य नरेश प्रारम्भ से लेकर जैन धर्म और उसके उपास्य स्थानों को संरक्षण देते आये हैं । ले. नं० १११ पुलकेशि द्वितीय के पौत्र विनयादित्य के राज्यकाल का है और नं. ११३ विजयादित्य तथा नं. ११४ विक्रमादित्य द्वितीय के राज्यकाल का है। इनसे विक्रमादित्य द्वितीय तक की वंशावली के अतिरिक्त हमें इन राजाशों के राजनीतिक इतिहास की कोई सूचना नहीं मिलती। ये लेख छोटे दान पत्र के रूप हैं । ले० नं० ११३ से मालुम होता है कि विजयादित्य ने अपने पिता के पुरोहित उदय देव पण्डित अर्थात् निरवद्य पण्डित को एक गाँव दान में दिया था । इसी तरह ११४ वे लेख से मालुम होता है कि विक्रमादित्य द्वितीय ने पुलिगेरे नगर में धवल जिनालय की मरम्मत एवं सजावट करायी थी। तथा मूलसंच देवगण के विजयदेव पण्डिताचार्य के लिए जिनपूजा प्रबन्ध के हेतु भूमिदान दिया था। विक्रमादित्य द्वितीय के बाद चालुक्य कुल के बुरे दिन श्राते हैं। यह बात हमें ले० नं० १२२, १२३,१२४, एवं १२७ से सूचित होती है । गंग और राष्ट्रकूट राजाओं ने इस साम्राज्य को तहस नहस कर दिया और लगभग २०० वर्षों तक यह फिर न पनप सका । इस बीच काल में इसका स्थान राष्ट्रकूट वंश को मिला। इस राजवंश का इतिहास पड़ने से मालुम होता है कि सन् ६७४ के पास पास तैलप द्वितीय ने इस वंश का पुनरुद्धार किया तथा कल्याणी नामक स्थान को राजधानी बनाया। नूतन शक्ति प्राप्त इस वंश के कतिपय राजाओं ने यद्यपि उतने उत्साह के साथ तो नहीं, फिर भी जैनधर्म की यथाशक्ति सेवा की। कविचरिते नामक ग्रन्थ से मालुम होता है कि तैलप द्वितीय महान् कन्नड जैन कवि रन का प्राश्रयदाता था। यह धारा नरेश मुज और भोज का समकालीन था।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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