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________________ था; तका काशीपति चण्डदण्ड को नन्दिकर्मा पल्लव का उसका कोई एक उत्तराधिकारी मानते हैं। इस ले० के अनुसार दामकीर्ति ( भुतकीर्ति का पुत्र ) के श्रानुन श्रीकीर्ति ने अपनी माता के कल्यणार्थ अपने स्वामी रविवर्मा से चार निवर्तन भूमि लेकर जिनेन्द्र के लिए दान में दी । ले० नं० १०२ से ज्ञात होता है फि रविवर्मा के ११ वें राज्य वर्ष में उसके अनुज मानुवर्मा से किसी पण्डर भोजक ने १५ निवर्तन भूमि प्राप्त कर जिनेन्द्र के लिए दान में दे दी। रविवर्मा का राज्यकाल साधारणतः सन् ४७८ से ५१३ ई० के लगभग माना जाता है। रविवर्मा का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हरिवर्मा हुना। इसके राज्य के दो लेख (१०३-१०४) इस संग्रह में हैं । ले० नं० १०३ से ज्ञात होता है कि उसने अपने राज्य के चतुर्थ वर्ष में अपने चाचा शिवरथ के उपदेश से पलाशिका' में सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिर की अष्टाहिका पूजा के लिए तथा सर्व संघ के भोजन के हेतु कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघ के हाथ में चन्द्रक्षान्त को प्रमुख बनाकर वसुन्तवाटक ग्राम दान में दिया । इसी तरह ले० नं १०४ से ज्ञात होता है कि उक्त नरेश ने अपने राज्य के पांचवें संवत्सर में सेन्द्रक राजा भानुवर्मा की प्रार्थना पर अहिरिष्ट नामक दूसरे श्रमण संघ के लिए मरदे नामक ग्राम दान में दिया । हरिवर्मा का राज्य काल सन् ५१३ से ५३४ ई. में माना जाता है। कदम्बों की एक शाखा और थी जिसके कुछ नरेशों ने मुख्य शाखा से विद्रोह किया था यह हमें ले० नं० १०१ से ज्ञात होती है। इस शाखा से सम्बन्धित इस संग्रह में केवल एक लेख (१०५) है। जो कि कृष्णवर्मा प्रथम के राज्यकाल का है। इतिहासज्ञों ने इस कृष्णवर्मा को शान्तिवर्मा का अनुज एवं काकुस्थवर्मा का पुत्र माना है। ले० नं० १०५ में उसके अश्वमेधयाजिन् , समरार्जित विपुल ऐश्वर्य, एकातपत्र आदि विशेषण दिये हैं जो कि इसके प्रताप १. सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २७२-२७३ ॥ २. सक्शेसर श्राफ सातवाहनाज, पृष्ठ २५२।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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