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________________ और शान्तरवा से सैन्ध स्थापित किया था। हुम्मच से प्रास लेख नं. २१३ से विदित होता है कि नन्नि श्रादि शान्तर राजकुमारों की अमिमाविका प्रसिद्ध जैन महिला चटत देवी इसी की पुत्री थी। इसके गुरु द्रविड संघ के विजय देव भट्रारक थे। इस राजा ने अपने वंश की गिरती हुई हालत को सुधारने का प्रयत्न किया पर सफल न हो सका। यद्यपि इस वंश का अन्त सन् १.०४ में रान राज चोल प्रथम की लड़ाई में हो गया, तो भी यह यत्र तत्र शाखाओं के रूप में जीवित बना रहा। ___ ऊपर निर्दिष्ट इस वंश के लेखों के अतिरिक्त दूसरे वंश के लेखों ( नं. १७२, २२२, २५१, २५३, २६७, २७७, २६६, ३१४, ४३१ ) में गंगवंश के अनेकों महामण्डलेश्वरों एवं राजात्रों का नाम श्राता है। ले० नं० २६७, २७७ एवं २६६ में तो इस वंश की प्रारम्भ से अन्त तक की वंशावली दी गई है, पर पीछे के राजाओं के सम्बन्ध में बहुत ही कम बात मालुम होती है जिनसे क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा जा सकता। प्रस्तुत शिलालेख संग्रह के देखने से इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता कि इस वंश के राजा प्रारम्भ से ही जैन धर्म और साहित्य के उपासक एवं संरक्षक साथ ही अपनी उदारनीति के कारण दूसरे सम्प्रदायों को भी दान श्रादि द्वारा संरक्षण प्रदान करते थे। इस वंश के संरक्षण में जैन धर्म ने अपना स्वर्णयुग देखा है। २. कदम्बर्वश:-प्रस्तुत संग्रह में कदम्ब वंश से सम्बन्धित १० लेख (६६, ६७,६८,६६, १००, १०१, १०२, १०३, १०४ ओर १०५) संग्रहीत है जिनमें कतिपय तो संस्कृत भाषा की सुन्दर काव्यात्मक शैली के नमूने हैं । यद्यपि इन लेखों में कोई काल-निर्देश नहीं है पर जिन राजात्रों के ये लेख हैं उनका समय अन्य प्रमाणों से ज्ञात होता है इसलिए हमें इन्हें लगभग सन् ३६६ से ५५० के भीतर के मानना चाहिए। ___ इन लेखों से कदम्ब नरेशों के गोत्रादि विदित होते हैं । तदनुसार वे मानव्य गोत्र एवं हारितीपुत्र अंगिरस के वंशज तथा काकुस्थान्वयी थे। यद्यपि यह वंश
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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