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________________ ५८६ जैन-शिलालेख-संग्रह दल्लि यी-नूतनवाद चैत्यालय कट्टिसि श्री अनन्त-स्वामियन्नु स्वास्त्यक्षेत्र-सहित प्रतिष्ठे माडि विरुवदक्के भद्रं शुभं मङ्गलं श्री॥ जिन शासन की प्रशंसा । सेनगणकी संस्थान पेनगोण्डेके लक्ष्मीसेन भट्टारक-स्वामी के शिष्य यिदगूर के पट्टण-शेटिके पुत्र अण्णय्यके पुत्र वीरप्प और तिम्मप्प थे । तिम्मप्प छोटा भाई था। वीरप्प मोतीखानेके महलमें काम करता था। वीरप्पने शालिग्राममें इस नवीन चैत्यालय का निर्माण कराकर इसे अनन्तस्वामीको सौंप दिया। [EC, IV, Yedatore tl., No. 36 ] ८००-८०३ शत्रुञ्जय-प्राकृत } [सं० १९३६ से ११४३ तक=ई. १८८२ से १८८६ तक] श्वेताम्बर लेख। ८०४-८३० प्रवणबेल्गोला;-कन्नड़। [अनिश्चित कालके ] [जै० शि० सं०, प्र. मा०] ८३१ तिरुमलै;-तामिल। [काल अनिश्चित १ स्वस्ति श्री [॥ ] कडेकोट२ टूर तिरुमलैप्परवादिम३ ल्लर माणाकर अरिष्टने४ मि भाचार्य्यर शेय५ वित यक्षित्तिरु६ मेनि ।।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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