SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५२ जैन-शिलालेख-संग्रह से उस पर ज्यादा खर्च होना भी स्वाभाविक था। माली और गायकों के (गन्धोंके लिये भी खर्च इसी आमदनीसे बँधा हुआ था। मन्दिरमें बसनेवाले ब्रह्मचारी इत्यादिको वर्ष भरमें ८ कम्बल शीतनिवारणके लिये मिलते थे और एक कम्बल दैनिक भात-भिक्षाके संग्रहके लिये । उन्हें आवश्यक चीजे, जैसे, तेल, साबुन- ईन्धन भी मन्दिरसे ही मिलता था। पंक्ति ४३-४७में दो और दानोंका उल्लेख है जो कि उसी भैरव द्वि. के ही किये गये मालूम देते हैं । (१) पहला दान 'हिरियअरमने' ( अर्थात् बड़ा महल ) के प्रांगणमें स्थित 'बस्ति' के चन्द्रनाथ के नित्य पूजनके लिये और (२) गोषधनगिरि के टीले पर स्थित • 'बस्ति' के पार्श्वनाथ के पूजनके लिये । अन्तिम ८ वें श्लोकमें पञ्चाक्षरी 'श्रीवीतराग' पर चित्रबन्ध शब्दालंकार है। इस लेखके परिचयमें श्री एच. कृष्णशास्त्री, बी. ए. ने अन्तिम चार पक्तियां (८ वे श्लोकके बाद ) मिटी हुई बताई हैं। ___दाता और भैरव द्वितीय सोमकुल, काश्यपगोत्र तथा जिनदत्त या जिनदत्तरायके वंशका था। वह गुम्मटाम्बा और वीरनरसिंह-वंगनरेन्द्रका पुत्र या। गुम्बटाम्बा भैरव प्रथमकी बहिन थी। भैरव प्र. 'होनमाम्बिका का पुत्र था । भैरव द्वितीयके बिरुद इसी लेखसे जानने चाहिये।] [ EI, VII, No. 101 मद्रासा-काद। काल -[ शक सं० १५१३ (१५६४ ई.] [साउथ कैनराके Sub-Court में ] खर संवत्सरमें, शक सम्वत् १५१३ ( १५६१ ई. ) में एक जैन-मन्दिरकी पूजाके प्रबधके लिए किलिग भूपाल नामके युवराजके द्वारा कनड़ प्रान्तमें भूमिदान । [ ASSI,II, p. Is, No. 91, a.]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy