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________________ जैन-पिलाल ग्रह मेघ भूरमणो बयं युधि यथा ध्यायत्याबान तथा विद्यानन्द-सुखीश्वरस्य चरणाम्भोचं मदीयं मनः । वन्दे पद्मावती देवी धारिणीन्द्र-मनः-प्रियाम् । भी-सिन्ध ... ... ... ... ... ... ... ...॥ देवेन्द्रकोत्ति-मुनिराज-तनूभवेन भी-वर्धमान सुखिना गदितानि भान्ति । पद्यानि सद्-गुण-युतानि महोज्वलानि विद्वत्-कवीन्द्र-गल-कर्ण-विभूषणानि । ...... दया धर्मस्तावत् सद्-धर्म-शासन । श्रीरस्तु जगतां राजा परां न्यायेन रक्षतु ।। भान्तु षड्-दर्शनान्यु ... ... ... ... || ( वही अन्तिम श्लोक )। वर्षमान-मुनीन्द्रेण विद्य ...... बन्धुना। देवेन्द्रकोर्ति-महिता लिखिता ... ... ... || । विद्यानन्द-स्वामीकी वाणीके तर्कसे वादि-राजेन्द्र भयभीत रहते हैं। विद्यानन्दि-अतिपतिके मुखसे निकली हुई वाणीको विद्वान् लोग भाष्य समझते हैं। उनके तर्ककी प्रशंसा । नजराय पट्टणके राजा नञ्ज-देवकी सभामें उन्होंने नन्दनमखि-भट्टका मुँह बन्द करके अपनेको 'विद्यानन्द' प्रसिद्ध किया। श्रीरङ्गनगरके कार्य ( प्रवर्द्धक ) यूरोपियन के मतको ध्वस्त करके एक विद्वत्परिषद्में उनने शारदा (सरस्वती ) को बुलाया था। उन्होंने सातवेन्द्र (या सान्तवेन्द्र) राजके अनुपद्रव दरबारमें दुनिया में प्रसार पा जानेवाली एक कविता पढ़ी थी। साल्व-मल्लिरायकी एक विद्वत्परिषद्में अच्छे वादियोंको परास्त किया। गुरु-नृपालके दरबारमें एक कर्णाटक ग्रन्यका निर्माण करके उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की। साळव-देव-राय के दरबारमें सब वादियोंके सिद्धान्तोंको मिथ्या सिद्ध करनेमें उन्होंने महती सफलता प्राप्त की थी। नगरी राज्यके राजाओंकी सभाओंमें उन्होंने विद्वानोंको
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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