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________________ ५८ इसके बाद प्रस्तुत संग्रह के ११ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के लेख नं० १८१ में इसका उल्लेख है वहाँ यह मूलसंघ के साथ द्रविड़ान्वय से युक्त है। इस पर हम अनुमान करते हैं कि द्रविड़ संघ के आदि गठन काल में, संभव है, इस गद्य के साधुओं ने भाग लिया हो या उस संघ के साधुगण मूलसंघ सूरस्थ गम में सम्मिलित रहे हों । इस गण के लेख, ११ वीं के पूर्वार्ध से लेकर १३ वीं शता० के अन्त तक के मिलते हैं। सभी लेख छोटे हैं केवल लेख नं २६६ को छोड़कर । इसमें सौभाग्य से इस गण की एक छोटी पट्टावली दी गई है जो इस प्रकार है:अनन्तवीर्य, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र कल्नेलेय देव ( रामचन्द्र ), श्रष्टोपवासि, मनन्दि, विनयनन्दि, एकवीर और उनके सधर्मा पल्लापण्डित ( श्रभिमानदानिक ) । लेख में पल पण्डित की बड़ी प्रशंसा है। इनका समय सन् १९१८ ई० (२६६) दिया गया है। इस गण के किसी भी लेख में कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। संभव है यह गण मूलसंघ की प्रभावशालिनी कुन्दकुन्दान्वय धारा में स्थान न पाने के कारण पिछली शताब्दियों में अपनी स्थिति को न सम्हाल सका हो । क्रापूर गण: - क्राणूर गण के सम्बन्ध में यापनीय संघ के विवेचन में हम संभावना प्रकट कर श्राये हैं कि क्राणूर गण यापनीयों के कएडूर गण के नाम का शब्दानुकरण है। कण्डूर या क्राणूर दोनों किसी स्थान विशेष को सूचित करते हैं जहाँ से कि उक्त गण के साधु समुदाय ने नाम ग्रहण किया है। इस गण के ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध (२०७, सन् १०७४ ई० ) से लेकर १४ वीं शताब्दी के अन्त तक लेख मिलते हैं । इस संग्रह में १७-१८ लेख इस गण से सम्बन्धित हैं जिनसे मालुम होता है कि इसमें प्रसिद्ध दो गच्छ थे- मेत्रपाषाण गच्छ (२१६, २६७, २७७, २६६, ३५३ ) तथा तिन्त्रिणोक गच्छ (२०६, २६३, ३१३, ३७७, ३६६, ४०८, ४३१, ४५६, ५८२ ) । मेषपाषाण का अर्थ है मेषों के बैठने का पाषाण । यह कोई स्थल विशेष होना चाहिए जहाँ से इस गण के के साधुओं का शुरू शुरू में सम्बन्ध रहा होगा । तिन्त्रिक एक वृक्ष का नाम है । ये पाषाणान्त और वृक्ष परक नाम इस गया के यापनीय संघ के साथ पूर्व सम्बन्ध
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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