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________________ ४६८ जैन-शिलालेख-संग्रह साचियागि भैरण्ण-नायकर कुमार विम्मडि-भैरवेन्द्रनू बरद शिला-शासन के मङ्गल महा भी। (हमेशाके अन्तिम श्लोक )। इन्द्रः पृच्छति चाण्डाली किमिदं पच्यते त्वया । श्वान-मांसं सुरा-सिक्कं कपालेन चिताग्निना ॥ देव-ब्राह्मण-वित्तानां बलादपहरन्ति ये ।। तेषां पाद-रचो-भीत्या चर्मणा पिहितं मया ॥ (हमेशाका अन्तिम श्लोक)। [पार्श्व-तीर्थेश्वरको नमस्कार । यह निर्विघ्न होवे। जिन-शासनकी प्रशंसा । पञ्च-परमेष्ठियोंको नमस्कार । शम्भुको नमस्कार इत्यादि । ___विस समय महाराजाधिराज, राज-परमेश्वर, ईश्वर-कुल-तिलक, महाविरूपाक्ष महाराय शान्ति एवं बुद्धिमत्तासे राज्य कर रहे थे:-और महाप्रभु, अयिसूर मुन्दुवण्ण-नायकका पुत्र भैरण्ण-नायक होरुगुप्पे हेब्वयल नाडकी रक्षा कर रहे थेइदुर्वाण बलिय-गौडका पुत्र, जो नगिर-ठावुमें आनेवाळिगेमें अग्रणी था, हैवण्णनायक, तथा बुकण्ण-नायकका दामाद, मालक-नायिकतिके पुत्र पारिस-गौडने ताकि 'पुण्य और ख्याति स्वयं अपनी तथा अपने शासक भयिरण्ण-नायककी बढ़ सके,-अपने दानमूल सीमेमें इदुवणेमें पार्श्वनाथ-तीर्थङ्करका चैत्यालय बनवाया था। और ( उक्त मितिको ) (पूर्व विगतोंको दुहराते हुए ) भगवान्की स्थापना की गयी थी। (नाना उपाधियोंवाले ) इदुगणिके पार्श्व तीर्थेश्वरके लिये, ऐश्वर्यपुरवराधीश्वर, महाप्रभु भैरण्ण-नायकने, जिससे कि पुण्य और ख्याति अपनी माता सिरु-मादेवी तथा अपनेतक, और उसकी सम्पत्तिके दास पार्श्व-गौडतक बढ़ सके,-निम्नलिखित शासन (लेख) प्रदान किया; -यहाँपर दैनिक पूजा, महोत्सव, भेटें, तथा अभिषेक आदिके लिये तथा और भी खर्चोंके लिये, हमने
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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