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________________ भाग्ङ्गीके शेख ... ... ... सित-प ... ... ... प्रभा-। कर-वर-वारमागे विभु-बुळूळपनैदिद ... ... ...॥ [चिन शासनकी प्रशंसा । मूल-संघ, नन्दि-संघ, पुस्तक-गच्छ, और देशि-गणके श्रुत-मुनिकी प्रशंसा । उनके शिष्य देवचन्द्र मनि थे । उनके शिष्य गोपिपतिके पुत्र बुकळप थे, जिन्हें अभयचन्द्रकी कृपासे यह अवसर प्राप्त हुआ था। जिस गांवका वह अधीश था, वह नागरखण्ड था, बो १८ कम्पण देशके गुतिका गांव था। इस नागरखण्ड के गाँवों में एक गांव भारङ्गि था, जिसमें उत्तमोत्तम चैत्यालय थे। बुञ्जप की प्रशंसा, जिसने भूमिदान किया था और ताळाब (दीम्धिका) बनवाये थे। अपना अन्त नजदीक नानकर, उसने सभी नियत विधियोको किया, और समाधि की विधिसे ( उक्त मितिको ) स्वर्गको गया । ] [ EC, VIII Sorab ti, No 330] पर्वत माबूर-संस्कृत । [सं० ११९५=१४६८ ई.] श्वेताम्बर लेख। [ Asiat. Res. XVI, p. 301, No. XVII, a.] ६४८ . पर्वत आबू,-संस्कृत। [सं० १५२६ - १७७२ ई० ] श्वेताम्बर लेख । [ Asiat. Res. XVI, p. 299, No. Xv, a.]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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