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________________ जैन - शिलालेख संग्रह ११० ६. दिगम्बर विमलचन्द्र ---ये बड़े भारी तार्किक पण्डित थे। शैव, पाशुपत, तथागत (बौद्ध) कापालिक और कापिल मतोंका बुरी तरह खण्डन करते थे । अपने घरके द्वारपर उनके लिये चैलेज लिखकर टाँग दिया था । १०. इन्द्रनन्दि मुनीन्द्र - इन्होंने 'प्रतिष्ठा - कल्प' और 'ज्वालिनी- कल्प' अन्योकी रचना की थी । ११. परवादिमल— इन्होंने कृष्णराजके समक्ष अपने नामका निर्वचन इस तरहसे किया था : गृहीतपक्षसे इतर 'पर' है, उसका जो प्रतिपादन करते हैं वे 'परबादि' हैं, उनका जो खण्डन करता है वह 'परवादि-मल्ल' है; यही नाम मेरा नाम है, ऐसा लोग कहते हैं । १२. इससे आगेका शिलालेखका बहुत-सा अंश घिसा हुआ है : मलधारि और इमिल संघ के नाम मिलते हैं । १३. तत्पश्चात् अजित सेन - पण्डित और चन्द्रप्रभ, जिनके शिष्य अजितसेन देव थे, की प्रशंसा आती है। इसके बाद समय-सभा में दिवाकर-सूर्यके समान समयदिवाकर के शिष्य सूरि चन्द्रप्रभकी प्रशंसा आती है । १४. चन्द्रप्रभ-मुनिनाथने सल्लेखना व्रत धारणकर शकवर्ष ११०५, शोभ- कृद्वर्ष, मंगलवार, भाद्रपद शुक्ला १०, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में, प्रभातसमय में देहो - सर्ग किया ।] [ EC, III, Tirumakudlu Narasipur tl., no 105. ] ४११ अळेसन्द्र-संस्कृत और कन्नड । [ शक ११०२११८३ ई०] [ मळेन्द्र (नलीफेरी प्रवेश) में, गाँव के मुख्य प्रवेशद्वार के दक्षिण की तरफ पढ़े हुए पाषाणपर ]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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