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________________ M जैन - शिलालेख - संग्रह फेरि विमानमं बरे सुराङ्गनेयर् नळि - तो [ळ].. तोरुविनं महोत्सवदे सेसयनिक्के सुरानक स्वनम् । मीरे घनाघन - ध्वनियनेत्तिद सत्तिगे चन्द्र- बिम्बमम् । बीरे विलासदि बिडिदु चामरमिकि समन्तु पोकळा- 1 नीरे महानुभावे सति इस- देवि सुरेन्द्र-लोकमम् ॥ [ ( प्रशंसा सहित ) महासती हलेने अपनी मृत्युके समय, अपने पुत्र वय - नायकको बुलाकर कहा, स्वप्न में भी मेरा ख़याल न करना, लेकिन धर्मका ही विचार करना । हमेशा धर्मं करो, क्योंकि ऐसा करने से तुम्हें इनाम ( जिनके नाम दिये हैं) मिलेगा। हे बूवि-देव ! यदि मुझे और तुझे दोनों को पुण्योपार्जन करना है, तो बिन मन्दिर बनवाओ । मेरे देवके मित्रोंका ( १ ) हमेशा आदर करना और अपने लघु चाचाका हमेशा खयाल रखना । इसके वाद, बिनपतिपर लेप करके उसने चन्दनका जल लिया इस निश्वयसे कि वह अपने तमाम पापोंको घो दे। तब, जिनेन्द्रके चरणोंकी उपस्थितिमें, बिना भूले पाँच शब्दों ( पञ्च नमस्कार मंत्र ) को बहुत जोरसे उच्चाचरण करते हुए, जिन इच्छाओंके बालसे वह घिरी हुई थी, उसे तोड़ते हुए, स्त्री हर्य्यलेने, समाधिके आश्रयसे इन्द्रलो कमें प्रवेश किया । ] [ EC, XII, Tiptur Tl, No. 93 ] ૩૮ करडालु, क वर्ष जय [ = ११०४ ई० १ ( लू. राइस) । ] [ करडालु, ध्वस्त बस्तिमें एक सम्भेपर ] श्री चान्द्रायण - देवर स (थ) तपत्र - नमदिं खरोवर- कुलं मेरु प्र- कूट- प्रमोन्- | ..... ... ... - हरिहर-देवि ॥
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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