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________________ प्राप्ति ईसा से लगमा ५५० वर्ष पहले हुई थी ,अतः इस स्तूप की मरम्मत १३०० वर्ष आद अर्थात् सन् ७५. के लगभग में हुई होगी। और पार्श्वनाथ के समय में इसके इंटों से बनाये जाने का काल ईसा से ६०० वर्ष से भी पूर्व निश्चित होता है। संभव है देवनिर्मित शब्द यही योतित करता है। यदि यह संभावना ठीक है तो भारत वर्ष के जितने स्तूप एवं इमारतें है उनमें यह स्तूप सबसे प्राचीन समझना चाहिये। स्तूप का मल अभी तक विद्वानों के विवाद का विषय है। किन्हीं का मत है कि यह प्राचीन यज्ञशालाओं का अनुकरण है जब कि दूसो इसे भग० बुद्ध के उलटकर रखे गये भिक्षापात्र के आधार पर निर्मित मानते हैं । कभी कभी विशिष्ट पुरुषों के स्मारक रूप में भी स्तूप बनते थे और उसमें उनके अस्थिफूल रखे जाते थे। पर यह आवश्यक नहीं कि सभी स्तूप ऐसे हों । सारनाथ के घमेख स्तूप और चौखण्डी स्तूप में कनिंघम को कुछ भी प्राप्त नहीं हुअा।। स्तूप का तलभाग गोल होता है। नीचे एक गोल चबूतरा, उसके ऊपर ढोल या कुएं के आकार की इमारत और उसके भी ऊपर एक अर्घ गोलाकार गुवज (छतरी) होती है । चबूतरे पर स्तूप के चारों ओर एक प्रदक्षिणा पथ छोड़कर पत्थर का लम्बी खड़ी ओर आड़ी पटरियों का एक घेरा ( Railing) बना रहता है । इस घरे में अधिकतर चारों दिशात्रों में तोरण (gate way) बने होते हैं। ये तोरण बड़े ही सुन्दर बनाये जाते हैं। पत्थर के दो स्तम्भ खड़े करके उनके ऊपर के शिरों पर तान श्राड़ी पटरियां लगा देते हैं। उन्हीं के नीचे से श्राने जाने क राम्ता रहता है। तोरण तक जाने के लिए सोड़ियां रहती हैं। ये स्तूप पोले अोर ठोस दोनों तरह के मिले हैं। मथुरा के जैन स्तूप का वर्णन इस प्रकार है:-इस स्तूप के तले का व्यास ४७ फीट था। यह ईटों का बना था, ईटें आपस में बराबर न थी किन्तु छोटी बड़ी थीं। इसकी भूमि का ढांचा इक्के गाड़ी के आकार का था । केन्द्र से बाहर की दीवार तक प्रा. व्यासाचं, जिनपर पाठ दीवार स्तूप के भीतर-भीतर ऊपर तक बमी थीं। इन दीवारों के बीच में मिट्टी भरी हुई मिली है । कदाचित् यह स्तूप
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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