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________________ कम्बदहल्लिके लेख १४५ कुलकं तां पार्व-देवं सले कलि-युग-भोमाई-सत्-पूजेगोल्दीये लसवंश्यङ्गे दिव्य-बाते-समितिगे विद्यार्थिगुत्साहदित्तम् ॥ शक-वर्ष १०८६ त्तेनेय सवजितु-संवत्सरद माघ ०५ शुक्रवार. दन्दु पाश्व-देव चतुर्विध-दानके बिट्ट दत्ति ।।। यही स्थान है जो पार्श्वने श्री मूलसंघ देशिय-गण, पोस्तक गच्छ और कोण्डकन्दान्वयके हनसोगेके दिव्य मुनिके चरणोंकी पूजाके लिये. विद्वानोंके लिये तथा निववंशजोंके लिये दिया था। पार्श्वदेव-प्रभुने,-जिनके पिता नेम-दण्डेश ये और माता मुहरसि थीं जो विमल गङ्ग वंशमें प्रख्यात थी,-विण्डिगनविलेके जैन मन्दिरको सुधरवाया, और उसके लिये कुछ जमीन अपने वंशों के लिये, दिव्य व्रतियों के लिये, और विद्यार्थियोंके उपयोगके लिये दी।] [ EC, IV, Nagmangala TI. No. 20 ] ___३७३ बन्दूर-संस्कृत और कबद [शक.६०%81६८ ई.] [बन्दूर (जावगल्लु परगने) में, जैन-बस्तिके स्वरूपर एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। जयति सकळविद्यादेवतारत्नपीठं हृदयमनुपलेपं यस्य दीग्घे स देवः। जयति तदनु शास्त्रं तस्य यत् सर्व-मिथ्यासमय-तिमिर-हारि ज्योतिरेकं नराणाम् ।। श्रीकान्तयंदु-कुळरत्नाकरदोळ कौस्तुभादिगळ बोल पललं ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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