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________________ होलफेरे लेख १०३ इंदे-गुति | सुजनक यी धर्मव नडेसिकोन्डु बरुवहु । ( वे ही अन्तिम श्लोक ) शासन के भद्र ं भूयाद् वर्द्धतां चिन शासनम् ॥ [ पाँच कल्याण-वैभव जिसके होते हैं उसके लिये नमस्कार । ] बिन शासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । साधुके गुणोंसे युक्त पारिश्वसेन भट्टारक- स्वामीने होळलकेरेके शान्तिनाथ - देवके ध्वस्त मन्दिरको फिरसे सुघरवाया था। श्री मूलसंघके बोद्दण्णगौड और दूसरे लोगों के द्वारा दिया गया दान जो रुक गया था उसके लिये उस गौडके पुत्रों (जिनके नाम दिये हैं) और अन्य लोगों ने १०० गद्याण सहित प्रताप - नायकको भेंट में देते हुए प्रार्थना-पत्र दिया, तब पारिश्वसेन- भट्टारक स्वामीहिरिय- केरेके पीछे की जमीन और लोगोंके घरों से मिली हुई भेंटे, सर्व करोंसे मुक्त करके, देवकी पूजा और गुरुओंके आहार- प्रबन्धके लिये (उक्त दिन ) दानमें दे दीं। इसके बाद देवता महोत्सवकी एक सूची और भूमिकी सीमाएँ आती हैं। वे ही अन्तिम श्लोक । ] [ EC, XI, Holalere tl., no. 1] ३३९ हेरगू - संस्कृत तथा कन्नड़ । - [ शक १०७७-११५५ ई० ] [ हेरगू (आलूरु परगना ), जैन-बस्ति के सामनेके पाषाणपर ] श्रीमत्पवित्रमकलं कमनन्तकल्पं स्वायम्भुवं सकलमंगलमादि-तीर्थम् । नित्योत्सवं मणिमयं नियतं जनानाम् त्रैलोक्य-भूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥ श्री - वीतराग ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्य - नाथस्य शासनं चिन-शासनम् ॥
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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