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________________ (इ) दक्षिण प्रान्त के प्रमुख जैन तीर्थों और केन्द्रों में श्रवणवेल्गोल, पोदनपुर, पलासिका, पुलिगेरे, कोपण, हनसोगे, हुम्मुच, बलिगाम्बे, कुप्पटूर, हलेबीड़, मलेयूर, मुल्लूर, मुगलूर, अंगड़ी, बन्दालिके, श्रावलि, उद्रि, कारकल, गेरसोप्पे श्रादि प्रसिद्ध थे। श्रवण वेल्गोल-यहाँ के सम्बन्ध में विशेष कुछ नहीं कहना है क्योंकि उसके माहात्म्य को प्रकट करने के लिए, जैन शिला लेख के ५०० शिलालेख प्रथम भाग के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। इस स्थान की परम्परा का सम्बन्ध अनेक विद्वानों के मत से श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त से है। कुछ विद्वानों के मत से उज्जयिनी के द्वितीय भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्त से है । जो भी हो पर जै० शि० सं० प्रथम भाग के प्रथम लेख का साधारणतः अर्थ करने से यहां की परम्परा का सम्बन्ध भद्रबाहु द्वितीय से ही मालुम होता है। १. जैन परम्परानो इतिहास' के लेखक विद्वान मनि श्री दर्शन विजय जी श्रादि (त्रिपुटी महाराज) ने आर्य सिंहगिरि के उत्तराधिकारी आर्य वज्रस्वामी और भद्रबाहु द्वितीय के जीवन चरित में अनेक प्रकार का साम्य दिखलाया है और संभावना प्रकट की है कि यदि दोनो आचार्यों को एक मान लिया जाय तो श्वेताम्बर दिगम्बर इतिहास संबंधी अनेक गृथियां सरल रीति से उत्कल जा सकती हैं। इन वज्रस्वामी का जन्म वीर संवत् ४६६ में, दीक्षा काल वीर सं० ५०४ में युगप्रधान पद ५४८ में और सं० ५८४ में स्वर्गगमन हुआ था। वे लिखते हैं:-दिगम्बर अन्थों में इस अरसे में द्वितीय भद्रबाहु होने का उल्लेख है जिनके दुसरे नाम वज्रयशा (तिलोयपरस्पत्लि ) महायशा ( महापुराण), यशोबाहु ( उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण), जयबाहु ( श्रुतावतार ), वर्षि ( हरिवंश पुराण स० १ श्लोक ३३ ), महायशा (आवश्यक नियुक्ति ) मिलते हैं। श्रवण वेल्गोल के चन्द्रगिरि स्थित एक लेख में उल्लेख है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा में महानिमित्त भद्रबाहु ने उज्जयिनी में रहते हुए १२ वर्षीय दुष्काल को श्राते देख
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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