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________________ पहोलेका लेख [इस लेख में कुल २० पंक्तियाँ हैं । पंक्ति १ से १४ तकमें एक संस्कृत शिलालेख है जिसमें दानशालाके लिये तथा दूसरे और भी कार्योंके लिये एक खेत के, तया गामुण्ड (गाँव के मुखियों) में से किसी के द्वारा निमापित जिनालय के दानकी प्रशस्ति है । वैजयन्ती या बनवासी का वर्णन चौथी पंक्तिमें हुभा-सा मालूम पड़ता है। पंक्ति १५ से २० तक प्रायः पूर्ण हैं (खण्डित नहीं हैं) और उनमें एक पुरानी कर्णाटक-भाषाका लेख है जिसमें यह उल्लेख है कि, जिस समय कीर्तिवर्मा सार्वभौम सत्ताके रूपमें शासन कर रहा था, और जब कि सिन्द नामका कोई एक राजा पाण्डीपुर नगरमें शासन कर रहा था दोणगामुण्ड और एळगामुण्ड आदिने, राजा माधवत्तिकी सम्मतिसे, जिनेन्द्र के मन्दिरको पूजाके प्रबन्धके लिये अक्षत (अखण्ड चावल), सुगन्ध, पुष्प आदि, और चावल के खेतोंके आठ ‘मत्तल' शाही मापसे नाप कर दिये। ये चावलके खेत कर्मगलूर गाँवकी पश्चिमदिशामें थे। इस शिलालेखका काल नहीं दिया है। लेकिन कीर्तिवाको जो उपाधियाँ दी हुई हैं उनसे, तथा अक्षरोंकी लिखावटसे यह स्पष्ट मालम पड़ता है कि इस लेखमें उल्लेखित कीर्तिवा पूर्ववर्ती चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा प्रथम है, जिसके राज्यका अन्त शक ४८९ में हुआ था। इस लेखसे यह भी मालूम पड़ता है कि कीर्तिवा प्रथमने कदम्बोंको जीता था।] [ई. ए०, ११, पृ०६८-७१, नं० १२० ] १०८ एहोले (जिला-कलद्गी)-संस्कृत । शिक सं० ५५६-६३४ ई.) चालुक्यवंशोभूतश्रीपुलकेशीका शिलालेख । जयति भगवाञ्जिनेन्द्रोवीनज[रा-म]रणजन्मनो यस्य । ज्ञानसमुद्रान्तर्गतमखिलं जगदन्तरीपमिव ॥ १ ॥ तदनु चिरमपरिवेयश्चालुक्यकुलविपुलजलनिधिर्जयति । पृथिवीमौलिललामो यः प्रभवः पुरुषरनानाम् ॥२॥
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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