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________________ ५८ जैन-शिलालेख संग्रह [इस शिलालेखमें शम-दमवाले किसी भ्यक्रिकेद्वारा पार्थनाप जिनेन्द्रकी प्रतिमाकी कार्तिक वदी पंचमीके दिन स्थापनाकी शत है। यह प्रतिमा किसी गुफाके द्वारपर खदी की गई थी। इस प्रतिमाकी स्थापना करने वाला था उसको खड़ा करनेवाला आचार्य गोशर्माका शिष्य था। ये गोशर्मा आचार्य भद्रके वंशमें हुए थे, इनकी परम्परा आर्यकुरूकी थी और अश्वपति योद्धाके लड़के थे। ये अश्वपति सहल (या सिंहल) के नामसे प्रसिद्ध थे और इन्होंने जिनदीक्षा लेनेके बाद अपना नाम शंकर रक्खा था। [इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ११, पृ० ३१०] मथुरा-संस्कृत। [ गुप्तकाल, वर्ष ११३] . १. सिद्धम् । परमभट्टारकमाहाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य विजयराज्यसं [१०० १०] ३ क......"लमा... दि ]-स २० अस्यां ५ [ पूर्वायां ] कोटिया गणा २. द्विद्याधरी [ तो ] शारखानो दतिलाचाय्यप्रज्ञपिनाये शामाढ्याये भट्टिभवस्य धीतु ग्रहमित्रपालि त प्रा ना रिकस्य कुटुम्बिनीये प्रतिमा प्रतिष्ठापिता। ___ अनुवाद-सिन्द्वि हो । परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तके विजयराज्यके ११३ वें वर्षमें, [शीतऋतु महीने] कार्तिकके २० वें दिन, कोटियगण (तथा) विद्याधरी शाखाके दतिलाचार्य (दत्तिलाचार्य) की आज्ञासे शामान्य (श्यामाख्य) ने एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करवाई । श्यामान्य महिभवकी बेटी (और) प्रहमित्रपालित प्रातारिक (घाटी या नाविक)की पत्नी थी। [El, II, n° JIV, n* 39]
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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