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________________ दावनगेरेका लेख ३७३ षण्मुख' था ऐसे जगदेकमल्ल वादिराज देव हुए । उनके बाद ओडेय देव, उनके बाद श्रेयांस- पण्डित, और उनके बाद परचक्र विजेता भजित सेनमुनीन्द्र हुए। अद्वितीय कुमारसेन प्रतिप निर्विवाद रूपसे आधुनिक गणधर रूप में प्रसिद्ध थे । तार्किक चक्रवर्ती अजित सेन- पण्डित देवके एक गृहस्थ शिष्य राजा तैलुग थे। उनकी प्रशंसा । उनका लघु भ्राता गोविन्द था। उनसे छोटा भाई बोपुग था । इन राजाओंने (तैलुग, गोविन्द, बोयुगने ) मिलकर, ( उक्त मिति को) चन्द्रग्रहण के समय, बसदिकी स्थापना की, और उसकी मरम्मत, ऋषिवर्गके आहार, तथा देवकी अष्टविध पूजा के लिये ( उक्त ) दान दिये । वे ही अन्तिम श्लोक 1 ] [ EC, VIII, Tirthahalli tl, n° 192 j २४९ दावनगेरे (मैसूर) कचड़ [वि० चा० का ३३ वाँ वर्ष = ११०८ ई० ] निम्नलिखित श्लोक मूल लेखकी २१ वीं पंक्ति है:कोळि नाडोळाद कदम्ब दिसायरदागरङ्गळोळ् देगुलकं जिना (य) लयकवारवेगं केरे बावि सत्रकम् । रागदे तन्न पन्नयद सुदोळं दशवन्नवित्तनि न्तागरमुठ्ठिनं नेगर्द (ब्द) बम्मरसं गुण - रत्नदागरम् ॥ अनुवाद:- "कदम्बके सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि स्थानोंमें अग्रगण्य कोगळिदेशमें, प्रसिद्ध, बम्मरसने, एक जैनमन्दिर, एक जिनकी वेदी, एक बगीचे, एक तलाव, एक कुआँ ( वापी ) तथा एक दानशाला (सत्रक) के लिए, - 'पद्मय' की, तबतकके लिये जबतक कि वह कर जारी रहे,— arat तमाम चुङ्गीपर 'दशवा" खुशी से दिये ।" [IA, XXX, p. 107, t. & tr.]. १ 'दशवन्न' से मतलब आधुनिक 'दसवन्द' या 'दशवन्द' से है, जिसका अर्थ मि० राइसने यह किया है कि "जो व्यक्ति किसी तालाबकी मरम्मत या उसका
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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