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________________ २४ जैन - शिलालेख संग्रह अ. २. 'लस्य धी [तु] धु' वेणि ब. २. '''श्रेष्ठि [स्य] धर्मपत्निये भट्टि [सेनस्य स. २. [ मातु ] कुमरमितयो' दनं भगवतो [ प्र ] .... द. २. मा सव्वतोभद्रका [11] अनुवाद - [ सफलता हो । ] १५ वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतुके तीसरे महीने के पहले दिन, भगवानकी एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाको कुमरमिता ( कुमारमित्रा) ने [मेहिक ] कुलके अर्थजयभूतिकी शिया अर्थ सङ्गमिकाकी शिष्या अर्थ्य वसुलाके आदेशसे समर्पित की । कुमारमित्रा. लकी पुत्री की बहू (वधू), श्रेष्ठी वेणीकी धर्मपत्नी और भट्टिलेनकी माँ थी । [ El, 1, u° XLIII, No 2] ... " २७ मथुरा - प्राकृत | [ हुविष्क ? ] वर्ष १८ अ. स १ ०८ गृ ४ दि ३ [ अस्या पु ] - [य] गण [ तो ]..... ब. संभोगातो वच्छलियातो कुलातो गणि........ द. १. [ द्र ]........ .... वासि जयस्य तु मासिगिये [ ? ] दानं सर्व्वत []भ [ या ] तो २. - [ सर्वस] ] वा [ नं ] सुखाय भवतु । अनुवाद - वर्ष १८ ग्रीष्मऋतुका ४ था महीना, तीसरे दिन अवसर पर, [ कोट्टि ] य गण, संभोग, वच्छलिय (वात्सलीय) कुळके गणि... ... के आदेश से जयकी ( माता ) मासिगिका दान एक सर्वतोभद्र [ प्रतिमा ] के रूप में किया गया । १ 'वधु' पढ़ो। २ इसे 'कुमारमितये' पढ़ना चाहिये । [ El, Il, n° XIV, n' 13 ]
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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