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________________ ૨૨૮ जैन-शिलालेख संग्रह दिया हुमा है । विक्रमसिंहने उनको 'श्रेष्टि' की पदवी दी थी और इन्हीमें से एक-साधु दाहड़-मन्दिरके संस्थापकोंमेंसे हैं । ऋषि और दाहड़ दोनों ही जयदेव और उसकी पत्नी यशोमतीके पुत्र, तथा श्रेष्ठी जासूकके नाती थे। जासूक जायसवाल वंशके थे जो 'जायस' (एक शहर) से निकला था। ३९-४५ की पंक्तियों में कुछ जैन मुनियोंका वर्णन है। उनमेंसे मन्तिम विजयकीर्ति थे। उन्होंने न केवल इस शिलालेखका लेख ही तैयार किया था, बल्कि अपने धार्मिक उपदेशसे लोगोंको इस मन्दिरके निर्माणके लिये मी, जिसका कि यह शिलालेख है, प्रेरणा की थी। उल्लेखित मुनियोंमेंसे सर्वप्रथम गुरु देवसेन हैं। ये लाट-वागट गणके तिलक थे। उनके शिष्य कुलभूषण, उनके शिष्य दुर्लभसेन सूरि हुए । उनके बाद गुरु शान्तिषण हुए, जिन्होंने राजा भोज देवकी सभामें पंडित शिरोरत्न अंबरसेन आदिके समक्ष सैकड़ों वादियोंको हराया था। उनके शिष्य विजयकीर्ति थे। मन्दिरके संस्थापकों मेंसे पंक्तियाँ ५८-५१ उनका नामोल्लेख इस प्रकार करती हैं:-साधु दाहड़, कूकेक, सूर्पट, देवधर, महीचन्द्र, और लक्ष्मण । इनके अलावा दूसरोंने भी जिनका नाम यहाँ नहीं दिया गया है, इस मन्दिरकी स्थापनामें मदद दी थी। गद्यभागमें (५४ वीं पंक्तिसे शुरू होनेवाला) कथन है कि महाराजा. धिराज विक्रमसिंहने मन्दिर तथा इसकी मरम्मतके लिये तथा पूजाके प्रबन्धके लिये प्रत्येक गोणी (अनाजकी?) पर एक 'विंशोपक' कर लगा दिया था तथा महाचक्र गाँवमें कुछ जमीन भी दी थी तथा रजकद्रहमें कुमासहित बगीचा भी दिया था। दिए जलानेके लिये तथा मुनिजनोंके शरीरमें लगानेके लिये उन्होंने कितने ही परिमाणमें (ठीक ठीक परिमाण जाना नहीं जा सका शिलालेखके शब्द हैं 'करघटिकाद्वयं') तेल भी दिया। अन्तमें आगामी राजाओंको भी उपर्युक्त दानको चालू रखनेकी प्रार्थना करनेके बाद, ६०-६१ पंक्तियों में इस प्रशस्तिके लिखनेवाले और इसको खोदनेवाले दोनोंका नाम दिया है । लिखी जानेकी तिथिका उल्लेख करके यह शिलालेख समाप्त हो जाता है। [ F. Kielhorn; EI, II, nxVIII. (p. 237-240 ). ]
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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