SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ जैन-शिलालेख संग्रह परिदुदराग्मियं मरेदु तिन्द पेणङ्गळिनादजीर्णादिम् । मरुळ बळाळि वैद्य-मरुळं बेसगोण्डडे दन्ति मद्देनल् । करियने नुङ्गि सूडुकोळे वैद्य-मरुळ नगे वीर-लक्ष्मि नो। डरि-हर निन्निनास्तिदेने विक्रम-शान्तरनादनोडगम् ॥ अन्तेनिसिद विक्रम-शान्तर-देवर स्स(श)क-वर्ष १००९ नेय प्रभव-संवत्सरद शुद्ध-पाडिवदन्दु पञ्च-बसदिय पूजा-विधान-जीर्णोद्धरणक्कमल्लिर्ण ऋषि-समुदायक्काहार-दानार्थमुमागि । सरसति निनगिनितु कला-। परिणति नेगर्दजितसेन-पण्डितरिन्दम् । दोरेवेत्तु देवियादी। पिरियतनं निन्नदल्तिदवर महत्त्वम् ॥ एनिसिद परवादीभसिंहापर-नामधेय-श्रीमत्-अजितसेन-पण्डितदेवर कालं कर्चि धारा-पूर्वकमा-सम्बन्धद समुदायं मुख्यमागे कोट्ट ग्रामङ्गल (यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा तथा वे ही अन्तिम वाक्यावयव और श्लोक आते हैं) द्रमिळ गणो लसतितरां निरुपम-धी-गुण-महितैः ॥ श्रीमत् सेनवोवं शोभनय्यं दिगम्बर-दासि बरेदम् ॥ [स्वस्ति । वीर-देवके पुत्र विक्रम-शान्तरकी प्रशंसा। उसका मूल नाम ओडग था। उसकी प्रशंसाके श्लोक । ओडग 'विक्रम-शान्तर' हो गया। विक्रम-शान्तर-देवने (उक्त मितिको) पञ्चवसदिमें पूजाके लिये, मरम्मत तथा ऋषियोंके माहारके लिये, वादीभसिंह इस द्वितीय नामसे प्रसिद्ध अजितसेन-पण्डित-देवके पैरोंके प्रक्षालनपूर्वक (उक) गाँवोंका दान, संपूर्ण करोंसे मुक्ति दिलाकर, किया। वे ही अन्तिम श्लोक । मिळ-गणकी अत्यन्त शोभा है । सेनबोव शोभनय्य दिगम्बरदासिने इसे लिखा है।] [EC, VIII, Nagar tl., n° 40 ( Part II).]
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy