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________________ मुल्लूरका लेख २४७ लक्कद सव-लेकद मरु-। वक निन्दपुवे समर संघटनदोळ ॥ (हमेशाके मन्तिम श्लोक) [प्रथम माग बहुत घिसा हुआ है और अन्तिम पंक्तियोंमें दानकी विशेष चर्चा है। छेनी और बल्लिको पकड़नेवालोंमें प्रधान, अर्थात् पाषाणशिल्पियों में प्रधान विद्यावान पोयसळावारिके पुत्र माणिक-पोयसळाचारिने यह बसदि बनवाई। इतनी भूमि देकरके, उन्होंने (उक्त मितिको) भगवानकी प्रतिष्ठा की, और पूजाकर तिरू-नन्दीश्वरके कालमें दान देकर मन्दिर पोऽसलके गुरु मुल्लूरके गुणसेन पण्डितदेवको सौंप दिया। परियल-देवी और मलेपरोळ्-गण्डकी प्रशंसा । "रकस होयसळ" इन ६ अक्षरों को अपने झण्डेपर लिखकर यदि वह उसे उड़ाता है, तो लक्षावधि शत्रु भी क्या उसका युद्ध में सामना कर सकते हैं ? (हमेशाके अन्तिम श्लोक)] [EC, VI, Mudgere tl., n° 13.] मुल्लर-संस्कृत तथा काड़ [शक ९८६=१०६४ ई.] मुल्लूर (निदुत परगना) में, बस्ति मन्दिरमें पार्श्वनाथ बस्तिके पश्चिममें प्रथम पाषाणपर] (पहली ओर) स्वस्ति शक-नृप-कालातीत-संवत्सर-शतङ्गळ् ९८६ नेय क्रोधि-संवत्सरं परिवर्तिसुत्तिरे तच्-चैत्र-बहुल-नवमी मङ्गळवारं पूर्वाभाद्रपद-नक्षत्रम्मिनोदयदल् ॥ खस्ति समस्त-सुरासुरेन्द्र-मकुट-तट-घटित-मणि-मयूख-रेखालङ्कृत-चा (दूसरी ओर ) रु-चरणारविन्द-युगलं भगवदर्हत्-परमेश्वर-परम-भट्टारकमुख-कमल-विनिर्गतागमामृत-गम्मीराम्भोराशि-पारगरम्प श्रीमद्-गुणसेनपण्डित-देवरम्मोक्ष-लक्ष्मी-निवासके सन्दर् (तीसरी मोर)
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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