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________________ २२४ जैन-शिलालेख संग्रह मेरीनिम्?षणं भगवदर्हन्मुमुक्षुपिञ्छध्वजविभूषणनुमप्प श्रीमत्कञ्चरसस्सैंगोट्ट-गङ्गनि बन्द धर्ममं समुद्धरिसिदनिदन्तप्पदे प्रतिपालिसिदात वारणासियोळ् सासिद्धरु ब्राह्मणगर्गे सासिर कविलेय[ म् ] कोट्ट फलम् । इदनळिदातं वाणरासियोळ् सासिर कविलेयुमं सासिवर्त्तपोधनरुमं सासिाह्मणरुमनळिद पातकमक्कु [1] ओम् [1] सामान्योऽयं धर्मसेतुं नृपाणाम् । ___ काले-काले पालनीयो भवद्भिस्स नेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् ___ भूयो-भूयो याचते रामभद्रः । (1) खदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धराम् षष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।। न विषं विषमित्याहुः देवखं विषमुच्यते विषमेकाकिनं हन्ति देवस्वं पुत्र-पौत्रिकम् ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।। [ कल्भावी बम्बई प्रान्तके बेलगाँव जिलेके सम्पाँव तालुकेके मुख्यशहर सम्पगाँव ( Sampgaum ) से दक्षिण-पूर्व करीब ९ मीलदूर एक गाँव है। इसका पुराना नाम इसी शिलालेखकी पंक्ति ८, १५, और २१ में 'कुम्मदवाड' दिया हुआ है। लिपिकी लिखावटसे यह लेख ई० ११ वीं शताब्दिका मालूम पड़ता है। लेख प्रकट करता है कि किसी अमोघवर्ष नामके राजाने मैलाप भन्वय और कारेय गणके देवकीर्ति नामके जैन गुरुके पादों (चरणों) का प्रक्षालन किया था। उस समोघवर्षके सामन्त, गङ्ग महामण्डलेश्वर सैगोट्टपेर्मानडि या सैगोट्ट-गण-पेनिडिने, जिनका दूसरा नाम शिवमार था,
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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