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________________ २०९ पञ्चपाण्डवमलैका लेख ८ पत्तियागविदु' कर्पूर-विलैयुमन्नियाय-[वा] वदण्ड[व] इरैयुमोळि __ अ शासनाञ्चेप्द-पडि [1] इदु [व]९ ल [द] उ कर्पूर-विलैयुमन्नियाय-बाबदण्डव्-इरैयुमिप्पण्ळिञ्चन्द त्तक्कोळ्[ ]नि गङ्गैयि१० डै [कुमरिय] इडैच्चेप्दार शे[य] द पा [व]ङ्कोळ्वारिदुवल्लदिप्प लिच्चन्दत्तै केडुप्यार वल्लबारे ११ ..''[न ]रु[व] [1] [] छ [मत्] तै [रक्षिप्पान् पादळिय् एन्-रिलै मे लीन {T] अर[म]रवर्क अरमल्ल तु[ण) यिल्लै । [यह शिलालेख तमिल गयकी ११ पंक्तियोंका है । लेखकी दूसरी पंक्तिमें राजराज-केशरीवर्मनके राज्यका ८ वां साल इसका काल बताया गया है । प्रस्तुत लेख महाराजा राजराज चोलके राज्य कालका है । यह ९८४८५ ई. में गद्दीपर बैठे थे। इस लेखमें किसी विजयका वर्णन नहीं है। इस शिलालेखके नीचे एक पशु बनाया गया है, वह चीता होना चाहिये, क्योंकि चोल राजाओंका वह चिह्न रहा है। लेखमें (पंक्ति ३) लाटराज वीरचोलका एक शासन है । वह चोल राजा राजराजका कोई अधीनस्थ राजा होना चाहिये, क्योंकि राज्यकाल उसीका (राजराजका) दिया हुआ है। लाटराज वीर-चोल पुगविप्पवर गण्डका पुत्र था । वीर-चोल और उनके पूर्वजोंके नामके पहले लाटराज ऐसा बिरुद लगा रहनेसे मालूम पड़ता है कि ये लोग पहले किसी समय लाट (गुजरात) से आये थे। __यह अभिलेख इस बातका उल्लेख करता है कि अपनी रानीकी प्रार्थना पर वीर-चोलने तिरुप्पान्मलैके देवताके लिये (पं०४) कूरगन्पाडि गाँवसे कुछ आमदनी बाँध दी थी। यद्यपि चैत्यालयका नाम सिर्फ 'तिरुप्पान्मलेका देवता' दिया गया है, परतु 'पल्लिचन्दम्' इस शब्दसे मालूम पड़ता है कि यह कोई जैन १ 'इन्द' पढ़ो। शि० १४
SR No.010111
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1952
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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